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आध्यात्मिक उत्थान की तीन मुख्य आवश्यकताएं हैं - पवित्रता, अनुशासन और प्रेम। इन तीनों विशेषताओं से ही ईश्वर संतुष्ट होते हैं: हृदय, मन और आत्मा के समर्पण की पवित्रता; मकसद और इच्छा का अनुशासन; और विचारों, भावनाओं और कार्यों की स्पष्टता। ये सब जब आत्मिक चेतना से होते हुए ईश्वरीय चेतना में मिल जाते हैं, यही रास्ता हमें आध्यात्मिक उत्थान की तरफ ले जाता है । | आध्यात्मिक उत्थान की तीन मुख्य आवश्यकताएं हैं - पवित्रता, अनुशासन और प्रेम। इन तीनों विशेषताओं से ही ईश्वर संतुष्ट होते हैं: हृदय, मन और आत्मा के समर्पण की पवित्रता; मकसद और इच्छा का अनुशासन; और विचारों, भावनाओं और कार्यों की स्पष्टता। ये सब जब आत्मिक चेतना से होते हुए ईश्वरीय चेतना में मिल जाते हैं, यही रास्ता हमें आध्यात्मिक उत्थान की तरफ ले जाता है । | ||
पवित्रता का अर्थ है अपनी सारी ऊर्जा को प्रेमपूर्वक कार्य करने के लिए निर्देशित करने का अनुशासन। इसका अर्थ यह भी है की आप हमेशा अपनी उच्च चेतना को जागृत रखें, लोगों की उच्च चेतना को जागृत करने में मदद करे,बीमार लोगों की सेवा करें और निष्क्रिय लोगों को काम करने की प्रेरणा दें। आप ईश्वर के प्रति सदा समर्पित रहें | पवित्रता का अर्थ है अपनी सारी ऊर्जा को प्रेमपूर्वक कार्य करने के लिए निर्देशित करने का अनुशासन। इसका अर्थ यह भी है की आप हमेशा अपनी उच्च चेतना को जागृत रखें, लोगों की उच्च चेतना को जागृत करने में मदद करे,बीमार लोगों की सेवा करें और निष्क्रिय लोगों को काम करने की प्रेरणा दें। आप ईश्वर के प्रति सदा समर्पित रहें और सदा प्रार्थना करते हुए चुन्नौत्तियों के लिए हमेशा तैयार रहें। | ||
ईश्वर के कानून में पवित्र होने का मतलब है अपने पूरे तन-मन से प्रभु से प्रेम करना, सभी मनुष्यों में ईश्वर का वास समझकर उनके प्रति भी प्रेम का भाव रखना, सभी दिव्यगुरूओं के प्रति पर्याप्त भक्ति भाव रखना और सान्सारिक घटनाओं के प्रति समभाव महसूस करते हुए अपने में ये द्रढ़ विश्वास पैदा करना कि "चाहे कुछ भी हो जाए, मैं ईश्वर का अनुसरण करूँगा"।<ref>Matt. 22:37–39; John 21:22.</ref> | ईश्वर के कानून में पवित्र होने का मतलब है अपने पूरे तन-मन से प्रभु से प्रेम करना, सभी मनुष्यों में ईश्वर का वास समझकर उनके प्रति भी प्रेम का भाव रखना, सभी दिव्यगुरूओं के प्रति पर्याप्त भक्ति भाव रखना और सान्सारिक घटनाओं के प्रति समभाव महसूस करते हुए अपने में ये द्रढ़ विश्वास पैदा करना कि "चाहे कुछ भी हो जाए, मैं ईश्वर का अनुसरण करूँगा"।<ref>Matt. 22:37–39; John 21:22.</ref> |
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