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<blockquote>ईश्वर स्वरूप के हृदय में स्तिथ लौ हमारे भौतिक शरीर के हृदय की (in the heart of the Presence) [[Special:MyLanguage/threefold flame|त्रिज्योति लौ]] (threefold flame) को आकर्षित करती है और प्रकाशरूपी परिधान उस व्यक्ति को पवित्र प्रकाश की डोर के द्वारा अपने अंदर समेट लेता है जिस से उस व्यक्ति की आध्यात्मिक उत्थान की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। इसके बाद इंसान के शरीर में कुछ असाधारण (tremendous) बदलाव होते हैं जिनके फ़लस्वरूप शरीर पूरी तरह से पवित्र हो जाता है, मनुष्य अपने चार निचले शरीरों की अशुद्धियों से मुक्त होने लगता है और फिर भौतिक शरीर हल्का होना शुरू हो जाता है। हल्का होते होते पूर्णतः भारहीन होकर वायुमंडल में ऊपर की ओर उठने लगता है और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का उस पर असर नहीं होता। शरीर प्रकाश से ढक जाता है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे मनुष्य "शुरुआत में" अपने ईश्वरीय स्वरुप (I AM Presence) से एकीकरण के बारे में जानता था। इसके बाद भौतिक शरीर महान ईश्वर की लौ के द्वारा गौरवशाली आध्यात्मिक शरीर में परिवर्तित हो जाता है।<ref>{{DOA}}, pp. 157–59, 175–77.</ref></blockquote> | <blockquote>ईश्वर स्वरूप के हृदय में स्तिथ लौ हमारे भौतिक शरीर के हृदय की (in the heart of the Presence) [[Special:MyLanguage/threefold flame|त्रिज्योति लौ]] (threefold flame) को आकर्षित करती है और प्रकाशरूपी परिधान उस व्यक्ति को पवित्र प्रकाश की डोर के द्वारा अपने अंदर समेट लेता है जिस से उस व्यक्ति की आध्यात्मिक उत्थान की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। इसके बाद इंसान के शरीर में कुछ असाधारण (tremendous) बदलाव होते हैं जिनके फ़लस्वरूप शरीर पूरी तरह से पवित्र हो जाता है, मनुष्य अपने चार निचले शरीरों की अशुद्धियों से मुक्त होने लगता है और फिर भौतिक शरीर हल्का होना शुरू हो जाता है। हल्का होते होते पूर्णतः भारहीन होकर वायुमंडल में ऊपर की ओर उठने लगता है और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का उस पर असर नहीं होता। शरीर प्रकाश से ढक जाता है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे मनुष्य "शुरुआत में" अपने ईश्वरीय स्वरुप (I AM Presence) से एकीकरण के बारे में जानता था। इसके बाद भौतिक शरीर महान ईश्वर की लौ के द्वारा गौरवशाली आध्यात्मिक शरीर में परिवर्तित हो जाता है।<ref>{{DOA}}, pp. 157–59, 175–77.</ref></blockquote> | ||
२ अक्टूबर १९८९ को दिए एक दिव्य वाणी में दिव्यगुरु [[Special:MyLanguage/ | २ अक्टूबर १९८९ को दिए एक दिव्य वाणी में दिव्यगुरु [[Special:MyLanguage/Rex|रेक्स]] (Rex) ने हमें बताया है कि भौतिक शरीर के साथ आध्यात्मिक उत्थान के पीछे हज़ारों सालों की तैयारी होती है। आजकल ज़्यादातर लोगों का आध्यात्मिक उत्थान तब होता है जब जीवात्मा भौतिक शरीर छोड़ देती है। जीवात्मा आत्मा का ईश्वरीय स्वरूप के साथ एकीकरण हो जाता है और महान इश्वरिये स्वरूप में एक स्थायी अणु के रूप में रहती है - ऐसी ही प्रक्रिया भौतिक शरीर के साथ भी आध्यात्मिक उत्थान समय होता है। | ||
<span id="Requirements_for_the_ascension"></span> | <span id="Requirements_for_the_ascension"></span> | ||
== आध्यात्मिक उत्थान की आवश्यकताएं == | == आध्यात्मिक उत्थान की आवश्यकताएं == | ||
आध्यात्मिक उत्थान की तीन मुख्य आवश्यकताएं हैं - पवित्रता, अनुशासन और प्रेम। इन तीनों विशेषताओं से ही ईश्वर संतुष्ट होते हैं: हृदय, मन और आत्मा के समर्पण की पवित्रता; मकसद और इच्छा का अनुशासन; विचारों, भावनाओं और कार्यों की स्पष्टता। ये सब जब आत्मिक चेतना से होते हुए ईश्वरीय चेतना में मिल जाते हैं, यही रास्ता हमें आध्यात्मिक उत्थान की तरफ ले जाता है । | आध्यात्मिक उत्थान की तीन मुख्य आवश्यकताएं हैं - पवित्रता, अनुशासन और प्रेम। इन तीनों विशेषताओं से ही ईश्वर संतुष्ट होते हैं: हृदय, मन और आत्मा के समर्पण की पवित्रता; मकसद और इच्छा का अनुशासन; और विचारों, भावनाओं और कार्यों की स्पष्टता। ये सब जब आत्मिक चेतना से होते हुए ईश्वरीय चेतना में मिल जाते हैं, यही रास्ता हमें आध्यात्मिक उत्थान की तरफ ले जाता है । | ||
पवित्रता का अर्थ है अपनी सारी ऊर्जा को प्रेमपूर्वक कार्य करने के लिए निर्देशित | पवित्रता का अर्थ है अपनी सारी ऊर्जा को प्रेमपूर्वक कार्य करने के लिए निर्देशित करने का अनुशासन। इसका अर्थ यह भी है की आप हमेशा अपनी उच्च चेतना को जागृत रखें, लोगों की उच्च चेतना को जागृत करने में मदद करे,बीमार लोगों की सेवा करें और निष्क्रिय लोगों को काम करने की प्रेरणा दें। आप ईश्वर के प्रति सदा समर्पित रहें और सदा प्रार्थना करते हुए चुन्नौत्तियों के लिए हमेशा तैयार रहें। | ||
पवित्र होने का अर्थ है ईश्वर के अनुशासन में रहना "अपने पूरे तन-मन से प्रभु से प्रेम करना" सभी मनुष्यों में ईश्वर का वास समझकर उनके प्रति भी प्रेम का भाव रखना, सभी दिव्यगुरूओं के प्रति पर्याप्त भक्ति भाव रखना और सान्सारिक घटनाओं के प्रति समभाव महसूस करते हुए अपने में ये द्रढ़ विश्वास पैदा करना कि "चाहे कुछ भी हो जाए, मैं ईश्वर का अनुसरण करूँगा"।<ref>Matt. 22:37–39; John 21:22.</ref> | |||
हर | आध्यात्मिक उत्थान हर उस व्यक्ति के लिए लक्ष्य है जो अपने होने का कारण समझता है। यह [[Special:MyLanguage/initiation|दीक्षा]] (initiation) किसी भी व्यक्ति को मिल सकती है चाहे वो छोटा बच्चा ही क्यों न हो, जब वह तैयार हो: | ||
* जब वह अपनी ह्रदय में स्थित त्रिज्योति लौ (threefold flame) को संतुलित कर लेता है। | * जब वह अपनी ह्रदय में स्थित त्रिज्योति लौ (threefold flame) को संतुलित कर लेता है। | ||
* जब उसके चारों शरीर (four lower bodies) - भौतिक, भावनात्मक, मानसिक और सूक्ष्म शरीर - ईश्वरीय आत्मा के शुद्ध पात्र बन जाते हैं। | * जब उसके चारों शरीर (four lower bodies) - भौतिक, भावनात्मक, मानसिक और सूक्ष्म शरीर - ईश्वरीय आत्मा के शुद्ध पात्र बन जाते हैं। | ||
* जब उसने सभी किरणों पर प्रभुत्व हासिल कर उन्हें संतुलित कर लिया हो। | * जब उसने सभी किरणों पर प्रभुत्व हासिल कर उन्हें संतुलित कर लिया हो। | ||
* जब उसने हर एक बाहरी परिस्थति पर काबू पा लिया हो, और सभी | * जब उसने हर एक बाहरी परिस्थति पर काबू पा लिया हो, और सभी नकरात्मक कर्मों, बीमारियों और मृत्यु पर विजय पा ली हो। | ||
* जब उसने मनुष्यों और ईश्वर की पर्याप्त सेवा कर अपनी दिव्य योजना (divine plan) को पूरा कर लिया हो। | * जब उसने मनुष्यों और ईश्वर की पर्याप्त सेवा कर अपनी दिव्य योजना (divine plan) को पूरा कर लिया हो। | ||
* जब उसने अपने ५१ प्रतिशत कर्म संतुलित कर लिए हों। | * जब उसने अपने ५१ प्रतिशत कर्म संतुलित कर लिए हों। (अर्थात ५१ प्रतिशत ऊर्जा जो ईश्वर ने हमें सब जन्मों में दी है, रचनात्मक रूप से योग्य हो गई हो या परिवर्तित हो गई हो) | ||
* जब उसका ह्रदय | * जब उसका ह्रदय ईश्वर और मनुष्य दोनों को समान समझे तथा वह ईश्वर के अनंत रूप से उभरती हुई उपस्थिति की कभी न बुझने वाले इश्वरिये प्रकाश द्वारा आध्यात्मिक उत्थान की आकांक्षा रखता हो। | ||
[[Special:MyLanguage/Luxor|लक्सर]] में स्थित | आध्यात्मिक उत्थान की प्रक्रिया में [[Special:MyLanguage/Luxor|लक्सर]] (Luxor) में स्थित आश्रय स्थल में दी गयी दीक्षाओं में सफल होना अनिवार्य है: | ||
* [[Special:MyLanguage/electronic belt|इलेक्ट्रॉनिक बेल्ट]] का [[Special:MyLanguage/transmutation|रूपांतरण]] | * [[Special:MyLanguage/electronic belt|इलेक्ट्रॉनिक बेल्ट]] (electronic belt) का [[Special:MyLanguage/transmutation|रूपांतरण]] (transmutation) | ||
* [[Special:MyLanguage/chakra|चक्रों]] तथा [[Special:MyLanguage/caduceus|सर्पदंड]] का सही उपयोग | * [[Special:MyLanguage/chakra|चक्रों]] (chakra) तथा [[Special:MyLanguage/caduceus|सर्पदंड]] (caduceus) का सही उपयोग | ||
* | * [[Special:MyLanguage/Kundalini|कुण्डलिनी]] (Kundalini) और [[Special:MyLanguage/Seed Atom|बीज परमाणु]] (Seed Atom) का उत्थान | ||
* | * अंतिम नकरात्मक अवशेषों के रूपांतरण के लिए अग्नि की कीप (cone of fire) का सृजन | ||
आरंभ में, व्यक्ति को मोक्ष प्राप्ति करने के लिए अपने | आरंभ में, व्यक्ति को मोक्ष प्राप्ति करने के लिए अपने कर्मों का पूर्णतया संतुलन और छोटे से छोटे कर्मों के अंशों को ईश्वरीय नियमों के अनुसार पूरा करना आवश्यक था। प्रत्येक जन्म में उसने जितनी भी ऊर्जा का गलत प्रयोग किया उसके प्रत्येक कण को मोक्ष प्राप्त करने से पहले पवित्र करना आवश्यक था। निपुणता हासिल करना ईश्वर के नियमों की मांग थी। | ||
अब [[Special:MyLanguage/Lords of Karma|कर्मों के स्वामी]] (Lords of Karma) द्वारा की गई ईश्वर की कृपा से ऐसा ज़रूरी नहीं है। ऐसा आशीर्वाद ईश्वर ने दिया है जिसके अनुसार जिन लोगों ने केवल ५१ प्रतिशत कर्मों को संतुलित कर लिया है वे भी आध्यात्मिक उत्थान के अधिकारी हैं। इसका अर्थ यह नहीं है की मनुष्य अपने कर्मों या अपूर्ण ज़िम्मेदारियों से बच सकता है। यह प्रकाश रुपी उपहार मनुष्य को मोक्ष और निपुणता के द्वारा आध्यात्मिक उत्थान की ओर अधिक शीर्घता से ले जाता है। उस स्तर से मनुष्य जीवन के शेष ऋणों को संतुलित कर सकता है। | |||
जब | जब मनुष्य ईश्वरीय नियमों के अनुसार १०० प्रतिशत कर्मों को संतुलित कर लेता है और ईश्वर से पुनः एकीकरण करके वह ब्रह्मांडीय सेवा की यात्रा पर अग्रसर हो जाता है। | ||
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