Discipleship/hi: Difference between revisions

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शिष्यत्व आत्मा और [[Special:MyLanguage/Great White Brotherhood|श्वेत महासंघ]] की शिक्षाओं का अनुयायी होने की स्थिति है। यह अनुशासन के माध्यम से [[Special:MyLanguage/Buddha|बुद्ध]], [[Special:MyLanguage/World Teacher|विश्व शिक्षकों]], और [[Special:MyLanguage/ascended master|दिव्यगुरूओं]] की [[Special:MyLanguage/initiation|दीक्षा]] में निपुणता प्राप्त करने की प्रक्रिया है।
शिष्यत्व आत्मा और [[Special:MyLanguage/Great White Brotherhood|श्वेत महासंघ]] (Great White Brotherhood) की शिक्षाओं का अनुयायी होने की स्थिति है। यह आत्मानुशासन के माध्यम से [[Special:MyLanguage/Buddha|बुद्ध]], [[Special:MyLanguage/World Teacher|विश्व शिक्षकों]] (World Teachers), और [[Special:MyLanguage/ascended master|दिव्यगुरूओं]] (ascended masters) की [[Special:MyLanguage/initiation|दीक्षा]] (initiation) में निपुणता प्राप्त करने की प्रक्रिया है।


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== दीक्षा के विभिन्न चरण ==
== दीक्षा के विभिन्न चरण ==


जीवंत शब्दों के अंतर्गत शिष्यत्व में दीक्षा के चरण:  
देहयुक्त शब्दों के द्वारा (Living Word) शिष्यता में दीक्षा के चरण:  


(1) '''Student:''' Under this phase the individual studies, becomes a student of the writings and the teachings of the master. He is free to come and go in his community, enjoying fellowship with his followers and the fruits of their dedication but has declared no particular responsibility to the person of the master. He has taken no vows, made no commitment, but may be studying to “show himself approved”<ref>II Tim. 2:15.</ref> in order to be accepted as a servant, or co-server (otherwise known as “chela”), sharing the joy of the master’s world mission.
(1) '''विद्यार्थी:''' इस चरण के अंतर्गत व्यक्ति गुरु के लेखन और शिक्षाओं का अध्ययन कर के उसका छात्र तो बन जाता है, परन्तु अपने गुरु के प्रति कोई विशेष जिम्मेदारी ग्रहण नहीं करता। वह अपने समुदाय में आने-जाने, अपने अनुयायियों की संगति और उनके समर्पण के फल का आनंद लेने के लिए स्वतंत्र है लेकिन उसने अपने गुरु के प्रति कोई प्रतिज्ञा या वचनबद्धता नहीं ली है। ऐसा भी हो सकता है कि शिष्य इस बात का प्रयत्न कर रहा हो कि गुरु स्वयं उसे एक सेवक या सह-सेवक (चेले) के रूप में स्वीकार कर लें।<ref>II Tim। २:१५.</ref>  


(2) '''Disciple ([[chela]]):''' The individual desires to enter into a bond with the master—to be taught directly by the master rather than through his published writings alone. The disciple answers the call of the master to leave his nets of karmic entanglements and worldly desire and follow him: “Come leave your nets, I will make you fishers of men.”<ref>Matt. 4:19; Mark 1:17.</ref> The disciple receives the initiations of the Cosmic Christ in the course of his service to the master. His heart, mind, and soul have begun to unfold a greater love as appreciation and gratitude for the teachings received in the previous level of student. This love is translated into action as self-sacrifice, selflessness, service, and surrender to the Person of the Christ, the Sun behind the Son of man of the master; when this step has been accelerated to the level of the “acceptable offering,” and the chela is engaged in balancing his threefold flame and his karma, he may be considered for the next step.
(2) '''शिष्य ([[Special:MyLanguage/chela|चेला]]):''' ऐसा व्यक्ति जो गुरु के साथ एक बंधन में बंधने की इच्छा रखता है, जो गुरु के प्रकाशित लेखों के बजाय सीधे गुरु द्वारा सीखना चाहता है। शिष्य अपनी कार्मिक उलझनों और सांसारिक इच्छाओं के जाल से निकलकर गुरु का अनुसरण करता है।<ref>मैट ४:१९; मार्क्स १:१७</ref> शिष्य गुरु की सेवा के दौरान ब्रह्मांडीय आत्मा (Cosmic Christ) की दीक्षा प्राप्त करता है।अब शिष्य का दिल, दिमाग और जीव-आत्मा विद्यार्थी के रूप प्राप्त की गई शिक्षाओं के प्रति कृतज्ञता महसूस करता है और उसके दिल में सबके प्रति निस्वार्थ प्रेम जन्म लेता है। यह प्रेम उसे बलिदान देने, निःस्वार्थ सेवा करने और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर के ईश्वर को स्वयं को समर्पण करने को प्रेरित करता है। जब उसकी निस्वार्थं सेवा का स्तर इतना अधिक हो जाता है कि ईश्वर के नियमों अनुसार "संतोषजनक" होता है और शिष्य अपनी त्रिज्योति लौ (threefold flame) और, कर्म को संतुलित करने में लग जाता है, तो वह अगले पायदान पर चढ़ने के लिए तैयार हो जाता है।


(3) '''Friend:''' Those counted as friend of the master enter by invitation—“Henceforth I call you no more servants but friends”<ref>John 15.</ref>—into a relationship as companion and co-worker, bearing increased responsibilities for the master’s path as world saviour. The friend bears the cross as well as the burden of light of the master; he demonstrates the qualities of friendship as in the life of [[Abraham]] and other chelas who have risen to a level of understanding the very heart and the experience of the master—providing comfort, consolation, advice, and support out of loyalty to both the purposes and the person of the master.
(3) '''मित्र:''' जो लोग गुरु के मित्र के रूप में जाने जाते हैं उन्हें दिव्यगुरूओं द्वारा आमंत्रित किया जाता है  - "अब से मैं तुम्हें सेवक नहीं बल्कि मित्र कहूंगा"<ref>जॉन १५.</ref>-अब से तुम एक साथी और सहकर्मी के रूप में मेरे साथ सभी जिम्मेदारियों को वहन (bear) करोगे। मित्र गुरु के प्रकाश का भागीदार होने के साथ साथ गुरु का बोझ भी बांटता है। वह [[Special:MyLanguage/Abraham|अब्राहम]] की तरह, जिन्हें ईश्वर का मित्र कहा जाता था, और अन्य चेलों की तरह ही मित्रता के गुणों को प्रदर्शित करता है।  वह पूर्ण वफादारी से गुरु तथा उसके उद्देश्यों को आश्वासन, सांत्वना, सलाह और समर्थन प्रदान करता है।


(4) '''Brother:''' The degree of brother is the level where the oneness of the Guru-chela, Alpha-Omega relationship is complete through the horizontal figure-eight exchange heart-to-heart; the Guru has actually made his disciple a part of his own flesh and blood and offered to him the full momentum of his attainment and portions of his [[mantle]] and authority in preparation for the master’s [[ascension]] and the disciple’s assuming of the part or whole of the master’s office. This is the love relationship exemplified between [[Jesus]] and [[John the Beloved|John]], his Mother, [[Mother Mary|Mary]], and perhaps his own flesh-and-blood brother (or cousin) James.
(4) '''भाई:''' जब गुरु और शिष्य (चेला) एक रूप हो जाते हैं तो शिष्य भाई कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है। यह रिश्ता अल्फा-ओमेगा (Alpha-Omega) के रिश्ते की तरह क्षैतिज (horizontal)आठ की आकृति (figure-eight) के द्वारा दिलों से आदान-प्रदान होता है। इस अवस्था में गुरु शिष्य को अपने शरीर और आत्मा का हिस्सा बना लेता है और उसे अपनी योग्यता , अधिकारों और अपने [[Special:MyLanguage/mantle|दायित्व]] (mantle) का कुछ अंश प्रदान करता है - यह गुरु के [[Special:MyLanguage/ascension|आध्यात्मिक उत्थान]] (ascension) और शिष्य के गुरु का स्थान लेने की तैयारी में करता है। यह प्रेम सम्बन्ध वैसा ही है जैसा [[Special:MyLanguage/Jesus|ईसा मसीह]] का [[Special:MyLanguage/John the Beloved|जॉन]] (John the Beloved) के साथ और [[Special:MyLanguage/Mother Mary|मदर मेरी]] (Mother Mary) का ईसा मसीह के चचेरे भाई जेम्स के साथ था।


(5) '''[[Christ]],''' or '''Christed one''': the Anointed of the Incarnate [[Word]].
(5) '''[[Special:MyLanguage/Christ|आत्मा]],''' या '''चैतन्य व्यक्ति''' (Christed one): अवतार का अभिषिक्त (Incarnate) [[Special:MyLanguage/Word|शब्द]]


== The path of discipleship ==
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== शिष्यता का मार्ग ==


To be the available instrument is one of the great keys in the path of discipleship. The disciple is the disciplined one who is always ready.
शिष्यता के मार्ग पर चलने के लिए स्वयं को उपलब्ध साधन बनाना प्रधान उपायों में से एक है। शिष्य वह अनुशासित व्यक्ति है जो इस बात के लिए सदैव तैयार रहता है।


[[Kuthumi]] says:
[[Special:MyLanguage/Kuthumi|कुथुमी]] कहते हैं:


<blockquote>A disciple is one who practices the disciplines of the God Self, ruling over and disciplining the outer personality and his own ideational pattern, having the God awareness of himself as an individualized manifestation of the [[I AM THAT I AM]]. Those so fortunate as to have chosen discipleship as a way of life, have thereby chosen to serve the Light. By always placing the Light first, these will find that one day the Light will place them first—at the center of God’s will. Then nothing will be impossible to the disciple, for it is not difficult for the Master.<ref>{{CCL}}, chapter 30.</ref></blockquote>
<blockquote>शिष्य वह होता है जो ईश्वर के अनुशासन का अभ्यास करता है, वह अपने बाहरी व्यक्तित्व और वैचारिक (ideational) रूप को नियंत्रण और अनुशासन में रखता है और अपने [[Special:MyLanguage/I AM THAT I AM|ईश्वरीय स्वरुप]] (I AM THAT I AM) के प्रति जागरूक रहता है। जो लोग अपने जीवन में शिष्यता के मार्ग को अपनाते हैं और प्रकाश की सेवा करने का मार्ग चुनते हैं, वे भाग्यशाली हैं क्योंकि वे प्रकाश को सदा प्राथमिकता देते हैं इसलिए एक दिन उन्हें प्रकाश पहले स्थान - भगवान की इच्छा के केंद्र  - में रखेगा। तब शिष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं होगा, क्योंकि गुरु के लिए कुछ भी कठिन नहीं है।<ref>{{CCL}}, अध्याय ३०।</ref></blockquote>


== For more information ==
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== अधिक जानकारी के लिए ==


{{CCL}}, chaps. 25–30.
{{CCL}}, २५-३० अध्याय


== Sources ==
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== स्रोत ==


{{SGA}}
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<references />
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Latest revision as of 11:34, 28 March 2024

Other languages:

शिष्यत्व आत्मा और श्वेत महासंघ (Great White Brotherhood) की शिक्षाओं का अनुयायी होने की स्थिति है। यह आत्मानुशासन के माध्यम से बुद्ध, विश्व शिक्षकों (World Teachers), और दिव्यगुरूओं (ascended masters) की दीक्षा (initiation) में निपुणता प्राप्त करने की प्रक्रिया है।

दीक्षा के विभिन्न चरण

देहयुक्त शब्दों के द्वारा (Living Word) शिष्यता में दीक्षा के चरण:

(1) विद्यार्थी: इस चरण के अंतर्गत व्यक्ति गुरु के लेखन और शिक्षाओं का अध्ययन कर के उसका छात्र तो बन जाता है, परन्तु अपने गुरु के प्रति कोई विशेष जिम्मेदारी ग्रहण नहीं करता। वह अपने समुदाय में आने-जाने, अपने अनुयायियों की संगति और उनके समर्पण के फल का आनंद लेने के लिए स्वतंत्र है लेकिन उसने अपने गुरु के प्रति कोई प्रतिज्ञा या वचनबद्धता नहीं ली है। ऐसा भी हो सकता है कि शिष्य इस बात का प्रयत्न कर रहा हो कि गुरु स्वयं उसे एक सेवक या सह-सेवक (चेले) के रूप में स्वीकार कर लें।[1]

(2) शिष्य (चेला): ऐसा व्यक्ति जो गुरु के साथ एक बंधन में बंधने की इच्छा रखता है, जो गुरु के प्रकाशित लेखों के बजाय सीधे गुरु द्वारा सीखना चाहता है। शिष्य अपनी कार्मिक उलझनों और सांसारिक इच्छाओं के जाल से निकलकर गुरु का अनुसरण करता है।[2] शिष्य गुरु की सेवा के दौरान ब्रह्मांडीय आत्मा (Cosmic Christ) की दीक्षा प्राप्त करता है।अब शिष्य का दिल, दिमाग और जीव-आत्मा विद्यार्थी के रूप प्राप्त की गई शिक्षाओं के प्रति कृतज्ञता महसूस करता है और उसके दिल में सबके प्रति निस्वार्थ प्रेम जन्म लेता है। यह प्रेम उसे बलिदान देने, निःस्वार्थ सेवा करने और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर के ईश्वर को स्वयं को समर्पण करने को प्रेरित करता है। जब उसकी निस्वार्थं सेवा का स्तर इतना अधिक हो जाता है कि ईश्वर के नियमों अनुसार "संतोषजनक" होता है और शिष्य अपनी त्रिज्योति लौ (threefold flame) और, कर्म को संतुलित करने में लग जाता है, तो वह अगले पायदान पर चढ़ने के लिए तैयार हो जाता है।

(3) मित्र: जो लोग गुरु के मित्र के रूप में जाने जाते हैं उन्हें दिव्यगुरूओं द्वारा आमंत्रित किया जाता है - "अब से मैं तुम्हें सेवक नहीं बल्कि मित्र कहूंगा"[3]-अब से तुम एक साथी और सहकर्मी के रूप में मेरे साथ सभी जिम्मेदारियों को वहन (bear) करोगे। मित्र गुरु के प्रकाश का भागीदार होने के साथ साथ गुरु का बोझ भी बांटता है। वह अब्राहम की तरह, जिन्हें ईश्वर का मित्र कहा जाता था, और अन्य चेलों की तरह ही मित्रता के गुणों को प्रदर्शित करता है। वह पूर्ण वफादारी से गुरु तथा उसके उद्देश्यों को आश्वासन, सांत्वना, सलाह और समर्थन प्रदान करता है।

(4) भाई: जब गुरु और शिष्य (चेला) एक रूप हो जाते हैं तो शिष्य भाई कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है। यह रिश्ता अल्फा-ओमेगा (Alpha-Omega) के रिश्ते की तरह क्षैतिज (horizontal)आठ की आकृति (figure-eight) के द्वारा दिलों से आदान-प्रदान होता है। इस अवस्था में गुरु शिष्य को अपने शरीर और आत्मा का हिस्सा बना लेता है और उसे अपनी योग्यता , अधिकारों और अपने दायित्व (mantle) का कुछ अंश प्रदान करता है - यह गुरु के आध्यात्मिक उत्थान (ascension) और शिष्य के गुरु का स्थान लेने की तैयारी में करता है। यह प्रेम सम्बन्ध वैसा ही है जैसा ईसा मसीह का जॉन (John the Beloved) के साथ और मदर मेरी (Mother Mary) का ईसा मसीह के चचेरे भाई जेम्स के साथ था।

(5) आत्मा, या चैतन्य व्यक्ति (Christed one): अवतार का अभिषिक्त (Incarnate) शब्द

शिष्यता का मार्ग

शिष्यता के मार्ग पर चलने के लिए स्वयं को उपलब्ध साधन बनाना प्रधान उपायों में से एक है। शिष्य वह अनुशासित व्यक्ति है जो इस बात के लिए सदैव तैयार रहता है।

कुथुमी कहते हैं:

शिष्य वह होता है जो ईश्वर के अनुशासन का अभ्यास करता है, वह अपने बाहरी व्यक्तित्व और वैचारिक (ideational) रूप को नियंत्रण और अनुशासन में रखता है और अपने ईश्वरीय स्वरुप (I AM THAT I AM) के प्रति जागरूक रहता है। जो लोग अपने जीवन में शिष्यता के मार्ग को अपनाते हैं और प्रकाश की सेवा करने का मार्ग चुनते हैं, वे भाग्यशाली हैं क्योंकि वे प्रकाश को सदा प्राथमिकता देते हैं इसलिए एक दिन उन्हें प्रकाश पहले स्थान - भगवान की इच्छा के केंद्र - में रखेगा। तब शिष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं होगा, क्योंकि गुरु के लिए कुछ भी कठिन नहीं है।[4]

अधिक जानकारी के लिए

Jesus and Kuthumi, Corona Class Lessons: For Those Who Would Teach Men the Way, २५-३० अध्याय

स्रोत

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Saint Germain On Alchemy: Formulas for Self-Transformation

  1. II Tim। २:१५.
  2. मैट ४:१९; मार्क्स १:१७
  3. जॉन १५.
  4. Jesus and Kuthumi, Corona Class Lessons: For Those Who Would Teach Men the Way, अध्याय ३०।