Ascension/hi: Difference between revisions
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आरोहण की तीन मुख्य आवश्यकताएं हैं शुचिता, अनुशासन और स्नेह। इन तीनों विशेषताओं से ही ईश्वर संतुष्ट होते हैं: हृदय, मन और आत्मा के समर्पण की पवित्रता; मकसद और इच्छा का अनुशासन; विचारों, भावनाओं और कार्यों की स्पष्टता। ये सब जब आत्मिक चेतना से होते हुए ईश्वरीय चेतना में मिल जाते हैं, तब ही ईश्वर के कानून का अनुसरण होता है। | आरोहण की तीन मुख्य आवश्यकताएं हैं शुचिता, अनुशासन और स्नेह। इन तीनों विशेषताओं से ही ईश्वर संतुष्ट होते हैं: हृदय, मन और आत्मा के समर्पण की पवित्रता; मकसद और इच्छा का अनुशासन; विचारों, भावनाओं और कार्यों की स्पष्टता। ये सब जब आत्मिक चेतना से होते हुए ईश्वरीय चेतना में मिल जाते हैं, तब ही ईश्वर के कानून का अनुसरण होता है। | ||
पवित्रता का अर्थ है अपनी सारी ऊर्जा को प्रेमपूर्वक कार्य करने के लिए निर्देशित करना। इसका अर्थ यह भी है की आप हमेशा अपनी चेतना को जागृत रखें, निर्धन और बीमार लोगों की सेवा करें, और निष्क्रिय लोगों को काम करने की प्रेरणा दें। पवित्रता का अर्थ यह भी है कि आप ईश्वर की दी हुई चुन्नौत्तियों के लिए हमेशा तैयार रहें तथा ईश्वर के प्रति सदा समर्पित रहें और लगातार प्रार्थना करते रहें। | |||
To be pure in the discipline of the Law is to “love the Lord thy God” with one’s total being, to “love thy neighbor” as one in whom the Christ Self lives, and to love the Christ in every ascended being with enough devotion so that one can put behind him the things of the world and say, “What is that to me? I will follow thee!”<ref>Matt. 22:37–39; John 21:22.</ref> | To be pure in the discipline of the Law is to “love the Lord thy God” with one’s total being, to “love thy neighbor” as one in whom the Christ Self lives, and to love the Christ in every ascended being with enough devotion so that one can put behind him the things of the world and say, “What is that to me? I will follow thee!”<ref>Matt. 22:37–39; John 21:22.</ref> |
Revision as of 07:23, 27 October 2023
मोक्ष वह प्रक्रिया है जिससे जीवात्मा का मिलन आत्मा से होता है। मोक्ष की प्राप्ति तब होती है जब जीवात्मा एक समय और स्थान पर रहते हुए स्वयं को ईश्वरीय चेतना में परिष्कृत कर लेती है। यह नेक लोगों को ईश्वर का दिया हुआ वह उपहार है जो उन्हें पृथ्वी लोक पर उनके निवास के अंत में जीवन का सम्पूर्ण लेखा जोखा देख कर दिया जाता है।[1]
इनोक का आरोहण हुआ था। उनके बारे में लिखा गया है कि ऐसा नहीं है कि वे ईश्वर के साथ गए बल्कि ईश्वर उन्हें अपने साथ लेके गए।[2]; एलिजाह का आरोहण चक्रवात की तरह हुआ[3]; ईसा मसीह का भी आरोहण हुआ, पर वे बादलों में बैठकर नहीं गए थे जैसा कि धर्मग्रंथ में बताया गया है।[4] दिव्यगुरू एल मोरया ने इस बारे में खुलासा किया है - उन्होंने बताया है ईसा मसीह का आरोहण ८१ साल की उम्र में शम्भाला से हुआ - वे उस समय कश्मीर में रहते थे।
सभी मनुष्य ईश्वर के पुत्र एवं पुत्रियां है।आरोहण का अर्थ ईश्वर से मिलाप है, यह इस बात का सूचक है की व्यक्ति ने जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्ति पा ली है - यह मुक्ति ही हर मनुष्य के जीवन का ध्येय है। ईसा मसीह ने कहा है, "केवल वही व्यक्ति स्वर्ग जा सकता है जो स्वर्ग से उतरकर पृथ्वी पर आया है।”[5] जीवात्मा का मुक्ति प्राप्ति के लिए चैतन्यपूर्वक आत्म-उत्थान करना यूँ है मानो दुल्हन विवाह का जोड़ा पहन रही हो - जीवात्मा दुल्हन है और आत्मा दूल्हा। जीवात्मा स्वयं को इस काबिल बनाती है कि वो ईश्वर से मिल सके। ईसा मसीह के मार्ग का अनुसरण करते हुए जीवात्मा अपनीं आत्मिक चेतना का उत्थान करते हुए उसी प्रभु से एकीकृत हो जाती है जहाँ से वह नीचे उतरी थी।
भौतिक आरोहण
दिव्य गुरुओं ने हमें यह शिक्षा दी है की आरोहण के लिए भौतिक शरीर का साथ होना ज़रूरी नहीं। नश्वर शरीर से अलग हो जीवात्मा एक ऊंची उड़ान भर के आरोहण के लिए निकल सकती है, जबकि भौतिक अंश पृथ्वी पर ही दाह-संस्कार की पद्यति से पवित्र अग्नि के सपुर्द कर दिए जाते हैं। हालाँकि धर्मग्रंथो में ऐसे उदाहरण हैं जिनके भौतिक शरीरों का भी आरोहण हुआ (इनोक और एलिजाह), परन्तु भौतिक शरीर के साथ आरोहण करने के लिए इंसान को अपने ९५-१०० प्रतिशत कर्म संतुलित करने होते हैं। एक्वेरियन एज (Aquarian Age) की व्यवस्था के अनुसार केवल ५१ प्रतिशत कर्म संतुलित करके व्यक्ति आरोहण के योग्य हो जाता है। बाकी का ४९ प्रतिशत वह आरोहण के बाद संतुलित कर सकता है। इस मामले में आरोहण कभी भी भौतिक शरीर के साथ नहीं होता, पर यह पूर्णतया वास्तविक होता है और सूक्ष्मदर्शी सिद्ध व्यक्ति इस आत्मिक प्रक्रिया को देख भी सकते हैं।
जब किसी व्यक्ति का भौतिक आरोहण होता है, तब दिव्यगुरु उसके शरीर को अपने प्रकाश से ढक कर रूपांतरित करते हैं। आरोहण की प्रक्रिया के दौरान जीवात्मा स्थायी रूप से प्रकाश से ढक जाती है, इसे ही "शादी का परिधान" या फिर मृत्यु से परे सौर शरीर कहते हैं। सिरेपीस बे ने इस प्रक्रिया का वर्णन अपने दस्तावेज़ "डोसियर आन एसेंशन" (Dossier on the Ascension) में किया है।
आत्मा की ज्योत व्यक्ति के ह्रदय में स्थित ज्योत को आकर्षित करती है और प्रकाशरूपी (शादी का) परिधान उस व्यक्ति को अपने अंदर समेट लेता है जिस से वह ऊपर उठ सकता है। इसके बाद इंसान के शरीर में कुछ आश्चर्यजनक बदलाव होते हैं जिनके फ़लस्वरूप शरीर पूरी तरह से पवित्र हो जाता है। फिर भौतिक शरीर हल्का होना शुरू होता है, और हल्का होते होते पूर्णतः भारहीन होकर आसमान में ऊपर उठने लहता है, पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का उसपर असर नहीं होता। प्रकाश से आच्छादित ये शरीर ऐसा ही प्रतीत होता है जैसा परमपिता परमेश्वर के शरीर के बारे में हम जानते है। इसके बाद भौतिक शरीर गौरवशाली आध्यात्मिक शरीर में परिवर्तित हो जाता है।[6]
२ अक्टूबर १९८९ को दिए एक श्रुतलेख में दिव्यगुरु Rex ने हमें बताया है कि भौतिक आरोहण से पीछे हज़ारों सालों का परिश्रम छिपा रहता है। आजकल ज़्यादातर लोगों का आरोहण तब होता है जब जीवात्मा भौतिक शरीर छोड़ देती है। जीवात्मा आत्मा के साथ मिल जाती है और ईश्वर के शरीर में एक स्थायी अणु के रूप में रहती है -- भौतिक आरोहण में भी ऐसा ही होता है।
आरोहण के लिए कुछ ज़रूरी बातें
आरोहण की तीन मुख्य आवश्यकताएं हैं शुचिता, अनुशासन और स्नेह। इन तीनों विशेषताओं से ही ईश्वर संतुष्ट होते हैं: हृदय, मन और आत्मा के समर्पण की पवित्रता; मकसद और इच्छा का अनुशासन; विचारों, भावनाओं और कार्यों की स्पष्टता। ये सब जब आत्मिक चेतना से होते हुए ईश्वरीय चेतना में मिल जाते हैं, तब ही ईश्वर के कानून का अनुसरण होता है।
पवित्रता का अर्थ है अपनी सारी ऊर्जा को प्रेमपूर्वक कार्य करने के लिए निर्देशित करना। इसका अर्थ यह भी है की आप हमेशा अपनी चेतना को जागृत रखें, निर्धन और बीमार लोगों की सेवा करें, और निष्क्रिय लोगों को काम करने की प्रेरणा दें। पवित्रता का अर्थ यह भी है कि आप ईश्वर की दी हुई चुन्नौत्तियों के लिए हमेशा तैयार रहें तथा ईश्वर के प्रति सदा समर्पित रहें और लगातार प्रार्थना करते रहें।
To be pure in the discipline of the Law is to “love the Lord thy God” with one’s total being, to “love thy neighbor” as one in whom the Christ Self lives, and to love the Christ in every ascended being with enough devotion so that one can put behind him the things of the world and say, “What is that to me? I will follow thee!”[7]
The ritual of the ascension is the goal for everyone who understands his reason for being. This initiation can and will come to anyone—even to a little child, when he is ready:
- when he has balanced his threefold flame
- when his four lower bodies are aligned and functioning as pure chalices for the flame of the Holy Spirit in the world of form
- when a balance of mastery has been achieved on all of the rays
- when he has attained mastery over sin, sickness and death and over every outer condition
- when he has fulfilled his divine plan through service rendered to God and man
- when he has balanced at least 51 percent of his karma (that is, when 51 percent of the energy given to him in all of his embodiments has either been constructively qualified or transmuted)
- and when his heart is just toward both God and man and he aspires to rise into the never-failing light of God’s eternally ascending Presence.
The ascension process also involves the passing of those initiations given at Luxor:
- the transmutation of the electronic belt
- the correct use of the chakras and the caduceus
- the raising of the Seed Atom (the Kundalini)
- and the building of the cone of fire for the transmutation of the last vestiges of one’s human creation.
Originally, the complete balancing of personal karma was required before a man could return to the heart of God. Every jot and tittle of the Law had to be fulfilled; every erg of energy he had misqualified throughout all of his incarnations had to be purified before he could ascend. Perfection was the requirement of the Law.
Now, however (thanks to the mercy of God dispensed by the Lords of Karma), the old occult law has been set aside. Those who have balanced only 51 percent of their debts to life can, by divine decree, be given the great blessing of the ascension. This does not mean that man can escape the consequences of his acts, nor does it imply that through the ascension he can evade any unfulfilled responsibilities. This dispensation does, however, enable man to obtain the freedom and perfection of the ascended state more quickly in order that he may from that plane of consciousness balance all remaining debts to life.
Then, when the Great Law has been fulfilled and 100 percent of the energies allotted to him since he came forth from the heart of God have been qualified with perfection, he can proceed on the high road of cosmic adventure and service in the eternally perfect reunion of man with God.
अधिक जानकारी के लिए
Serapis Bey, Dossier on the Ascension.
इसे भी देखिये
दिव्यगुरु, ब्रह्मांडीय जीव और देवदूत.
स्रोत
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Saint Germain On Alchemy: Formulas for Self-Transformation.
Pearls of Wisdom, vol. 25, no. 54, December 30, 1982.
Pearls of Wisdom, vol. 35, no. 34, August 23, 1992.
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Masters and the Spiritual Path, pp. 93–94.