Jesus/hi: Difference between revisions
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अपने एक अवतार में इन्होनें अटलांटिस की सतयुगीन सभ्यता के दौरान सम्राट और उच्च पुजारी के रूप में शासन किया, जो दो हज़ार वर्ष तक चली - ३४,५५० बी सी से ३२,५५० बी सी तक। यह समय आज से सत्रह युग पूर्व का था, और यह कर्क राशि का युग था। यीशु का जन्म ३३,०५० बी सी में हुआ था, और उनका शासन काल ३३,००० बी सी में शुरू हुआ था - तब सतयुग के १,५०० वर्ष बीत चुके थे। उनकी पत्नी उनकी समरूप जोड़ी थीं, जिन्हें आज हम महिला दिव्यगुरु [[Special:MyLanguage/Magda|मैग्डा]] के रूप में जानते हैं। उस समय वे मनुष्य रूप में ईश्वर के सर्वोच्च प्रतिनिधि थे। इस सभ्यता के सभी लोग ईश्वर के बताये रास्ते पर चलते थे। यीशु और मैग्डा को लोगों पर कोई नियम लागू नहीं करना पड़ा क्योंकि वे सभी अपने ईश्वरीय स्रोत के अनुरूप थे। | अपने एक अवतार में इन्होनें अटलांटिस की सतयुगीन सभ्यता के दौरान सम्राट और उच्च पुजारी के रूप में शासन किया, जो दो हज़ार वर्ष तक चली - ३४,५५० बी सी से ३२,५५० बी सी तक। यह समय आज से सत्रह युग पूर्व का था, और यह कर्क राशि का युग था। यीशु का जन्म ३३,०५० बी सी में हुआ था, और उनका शासन काल ३३,००० बी सी में शुरू हुआ था - तब सतयुग के १,५०० वर्ष बीत चुके थे। उनकी पत्नी उनकी समरूप जोड़ी थीं, जिन्हें आज हम महिला दिव्यगुरु [[Special:MyLanguage/Magda|मैग्डा]] के रूप में जानते हैं। उस समय वे मनुष्य रूप में ईश्वर के सर्वोच्च प्रतिनिधि थे। इस सभ्यता के सभी लोग ईश्वर के बताये रास्ते पर चलते थे। यीशु और मैग्डा को लोगों पर कोई नियम लागू नहीं करना पड़ा क्योंकि वे सभी अपने ईश्वरीय स्रोत के अनुरूप थे। | ||
ईसा मसीह का राजकाल ४५० साल तक चला, पर इसके बाद ज़ेनोस (Xenos) नामक व्यक्ति ने भ्रष्टाचार के बीज बोने शुरू कर दिए। ज़ेनोस ईसा मसीह का मुख्य सलाहकार था। अंततः वह अपने मकसद में कामयाब भी हो गया - उसने जनता को राजा (ईसा मसीह) के खिलाफ आंदोलन करने को राज़ी कर लिया और स्वयं राजा बन गया। करीब दो मिलियन लोग (जन समुदाय का २० प्रतिशत) ईसा मसीह और मैग्डा के साथ एक दूसरे स्थान पर चले गए - यह स्थान बाद में सुएर्न (Suern) कहलाया - यह भारत और अरब को मिलाकर बना था। इनमें से आधे लोगों का आध्यात्मिक उत्थान हो गया और बाकी आज भी पृथ्वी पर हैं तथा आध्यात्मिक उत्थान के मार्ग पर चल रहे हैं। | |||
=== Other embodiments on Atlantis === | === Other embodiments on Atlantis === |
Revision as of 12:30, 5 April 2024
दिव्यगुरु ईसा मसीह। मीन युग के अवतार; (ईश्वर के) शब्द का अवतार, सार्वभौमिक आत्मा ; आत्मिक चेतना का उदाहरण, जिसे मीन युग के दो-हजार वर्ष की व्यवस्था में ईश्वर के बच्चों द्वारा चित्रित किया गया था; वे जिन्होंने आत्मिक स्व की पूर्णता को महसूस किया जिसके कारण उनका नाम जीसस, द क्राइस्ट पड़ा। वे संपूर्ण मानव जाति को यह बताने आये थे की जिस प्रकार वे ईश्वरीय स्वरुप को निपुणता से हासिल कर सकते, पृथ्वी पर रहनेवाला हर मनुष्य कर सकता है।
दिव्यगुरु कुथुमी की तरह ईसा मसीह भी विश्व शिक्षक के पद पर आसीन हैं। कुथुमी संत फ्रांसिस के रूप में भी अवतरित हुए थे।
शब्द का अवतार
नाज़रेथ के यीशु जीते जागते मसीह थे/ हैं क्योंकि वह ईश्वर के शब्द की परिपूर्णता थे। उनमें शक्ति, ज्ञान और प्रेम की त्रिदेव ज्योत, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा की त्रिमूर्ति, भस्म करने वाली पवित्र अग्नि थी। वे ईश्वर के समरूप हैं, और अपनी रौशनी से सभी को प्रकाशित करते हैं।
एक सामान्य पुरुष और महिला में (ह्रदय के अंदर एक गुप्त कक्ष में स्थित) त्रिदेव ज्योत की ऊंचाई एक इंच का सोलहवां हिस्सा होती है - नोआह के जीवनकाल के दौरान भगवान के एक आदेशानुसार त्रिदेव ज्योत की ऊंचाई कम हुई थी। त्रिदेव ज्योत के आकार को बढ़ाने की शिक्षा हमें ईसा मसीह ने दी है। वे बताते हैं कि किस तरह हम उनके उदाहरण का अनुसरण कर ईश्वर के शब्द का जीवंत अवतार बन सकते हैं। उन्होंने हमें प्रेम, ज्ञान और शक्ति की ऊर्जाओं को संतुलित करना सिखाया है जिससे हमारी त्रिदेव ज्योत इतनी बड़ी हो जाए कि हमारा पूरा शरीर उसमें समा जाए और हम पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के जीते जागते साक्ष्य बन जाएं।
ईश्वर की लौ बनना ही जीवन का लक्ष्य है। मानव जाति के उद्धारकर्ता ईसा मसीह हमें बताते हैं कि सत्य के मार्ग पर चलना, अपने ईश्वरीय स्वरुप को पाना ही जीवन का ध्येय है।
अवतार
यीशु पहली बार सनत कुमार के साथ एक स्वयंसेवक के रूप में पृथ्वी पर आए थे, उसके बाद वे कई बार पृथ्वी पर अवतरित हुए।
अटलांटिस पर सतयुग का शासक
► मुख्य लेख: अटलांटिस पर ईसा मसीह का सतयुग
अपने एक अवतार में इन्होनें अटलांटिस की सतयुगीन सभ्यता के दौरान सम्राट और उच्च पुजारी के रूप में शासन किया, जो दो हज़ार वर्ष तक चली - ३४,५५० बी सी से ३२,५५० बी सी तक। यह समय आज से सत्रह युग पूर्व का था, और यह कर्क राशि का युग था। यीशु का जन्म ३३,०५० बी सी में हुआ था, और उनका शासन काल ३३,००० बी सी में शुरू हुआ था - तब सतयुग के १,५०० वर्ष बीत चुके थे। उनकी पत्नी उनकी समरूप जोड़ी थीं, जिन्हें आज हम महिला दिव्यगुरु मैग्डा के रूप में जानते हैं। उस समय वे मनुष्य रूप में ईश्वर के सर्वोच्च प्रतिनिधि थे। इस सभ्यता के सभी लोग ईश्वर के बताये रास्ते पर चलते थे। यीशु और मैग्डा को लोगों पर कोई नियम लागू नहीं करना पड़ा क्योंकि वे सभी अपने ईश्वरीय स्रोत के अनुरूप थे।
ईसा मसीह का राजकाल ४५० साल तक चला, पर इसके बाद ज़ेनोस (Xenos) नामक व्यक्ति ने भ्रष्टाचार के बीज बोने शुरू कर दिए। ज़ेनोस ईसा मसीह का मुख्य सलाहकार था। अंततः वह अपने मकसद में कामयाब भी हो गया - उसने जनता को राजा (ईसा मसीह) के खिलाफ आंदोलन करने को राज़ी कर लिया और स्वयं राजा बन गया। करीब दो मिलियन लोग (जन समुदाय का २० प्रतिशत) ईसा मसीह और मैग्डा के साथ एक दूसरे स्थान पर चले गए - यह स्थान बाद में सुएर्न (Suern) कहलाया - यह भारत और अरब को मिलाकर बना था। इनमें से आधे लोगों का आध्यात्मिक उत्थान हो गया और बाकी आज भी पृथ्वी पर हैं तथा आध्यात्मिक उत्थान के मार्ग पर चल रहे हैं।
Other embodiments on Atlantis
► Main article: Golden age of Jesus Christ on Atlantis
After that embodiment, Jesus materialized on Atlantis and elsewhere on the planet where and when he was needed if the people’s good karma and allegiance to the Godhead warranted his intercession. About 15,000 B.C., Jesus returned as the ruler, the Rai, of Atlantis. As described by Phylos the Tibetan in his book A Dweller on Two Planets, this great Rai appeared in the Temple of the capital, Caiphul, and caused to spring up there the Maxin, the Fire of Incal. This unfed flame burned on the altar of the temple for five thousand years. The Rai of the Maxin light ruled for 434 days. He revised the laws and provided a legal code that governed Atlantis for thousands of years to come.
After a long golden age, the civilization of Atlantis was corrupted by false priests, until “God saw that the wickedness of man was great in the earth, and that every imagination of the thoughts of his heart was only evil continually.”[1] Atlantis went down in the great cataclysm that is recorded as the Flood of Noah.
Abel and Seth
In the Genesis account of Adam and Eve, we see Jesus as Abel, the son of Adam, who found favor with the LORD but was slain by his jealous brother, Cain. When Eve conceived and bore another son, she called his name Seth: “For God, said she, hath appointed me another seed instead of Abel, whom Cain slew.”[2]
And when to this Seth there was born a son, Enos, it is written: “Then began men to call upon the name of the LORD.”[3] Thus, through the rebirth and the renewal of the spiritual seed of Christ in Seth—the reincarnated Abel—the sons and daughters of God once again had access to the mighty I AM Presence by means of his mediatorship.
Joseph, son of Jacob
Jesus came again as Joseph, the son of Jacob, who was sold into slavery in Egypt by his brethren—the same who later reembodied as his disciples. In Egypt he was accorded high honors and authority in affairs of state because of his spiritual interpretation of Pharaoh’s dreams.
Joshua
As Joshua, the son of Nun, Jesus felled the walls of Jericho and led the Israelites into the Promised Land.
Joshua was a mighty leader in battle who followed in the path and the archetype of the Lord Krishna, engaging in the battles of the seed of light to overcome the seed of darkness.
King David
► Main article: King David
As David, he wrote the Psalms: “Thou wilt not leave my soul in hell; neither wilt thou suffer thine Holy One to see corruption.”[4]
Elisha
► Main article: Elisha
As Elisha, he was the pupil of Elijah, who ascended and later, under special dispensation, reembodied as John the Baptist to prepare the way for Jesus’ mission in Galilee.
Avatar of the Piscean age
Jesus came into his final incarnation having passed many initiations throughout his Eastern and Western embodiments; yet he retained the small percentage of karma that was required for his mission, and which he balanced by the time he left Palestine at age thirty-three. Jesus recognized in John the Baptist his guru Elijah, who had “come again” to prepare the way of his chela.
John the Baptist said of Jesus, “He must increase but I must decrease.”[5] The guru stepped aside because this was the dispensation of the Piscean age. And so Jesus now would wax strong in the Lord to be that avatar of that age.
Between the ages of twelve and thirty, Jesus studied in both outer and inner retreats of the Brotherhood at Luxor and in the Himalayas. Serapis Bey, Hierarch of the Ascension Temple at Luxor, Egypt, has described how the Master Jesus came to Luxor as a very young man and knelt before the Hierophant “refusing all honors that were offered him” and asked to be initiated into the first grade of spiritual law and mystery. “No sense of pride marred his visage—no sense of preeminence or false expectation, albeit he could have well expected the highest honors.”[6]
► Main article: Lost years of Jesus
Scrolls that describe Jesus’ journey to the East are still preserved in a monastery in a valley in Ladakh, Kashmir. In India he studied under the Great Divine Director, Lord Maitreya and Lord Himalaya. It was here that he received key mantras for his mission, which he later taught to his disciples. Some of these mantras are included in “The Transfiguring Affirmations” dictated by the master Jesus to Mark Prophet.
Having been a member of the Order of Zadkiel prior to his final embodiment, Jesus had learned the science of invocation and alchemy. This knowledge enabled him to change water into wine, to calm the sea, to heal the sick and to raise the dead.
After his crucifixion and resurrection, Jesus went to Kashmir, where he lived to the age of eighty-one. At the conclusion of that life, he took his ascension from the etheric retreat of Shamballa.
World Teacher
► Main article: World Teacher
After his ascension, Jesus became the chohan of the sixth ray. When Sanat Kumara returned to Venus on January 1, 1956, Jesus assumed the position of World Teacher, replacing Lord Maitreya who became the planetary Buddha.
Mission today
Jesus calls us to the path of discipleship under the ascended masters. He has released a series of calls to this path, published in the book Walking with the Master: Answering the Call of Jesus[7]. Jesus says to those who would be his disciples in the age of Aquarius, “Greater love than this hath no man, that a man lay down his life for his friends.[8] Blessed ones, this is not speaking of death but of a vibrant life lived—lived truly to convey the fire of my heart to all. This is the meaning of being a disciple who is called apostle, instrument and messenger of light, conveyer of that light.”[9]
Retreats
► Main article: Resurrection Temple
► Main article: Arabian Retreat
Jesus’ retreat is the Resurrection Temple, located in the etheric realm over the Holy Land. He also serves in the Arabian Retreat in the Arabian Desert northeast of the Red Sea.
The radiance of the Christ can be drawn through the playing of his keynote, “Joy to the World.”
See also
For more information
Elizabeth Clare Prophet, The Lost Years of Jesus: Documentary Evidence of Jesus’ 17-Year Journey to the East
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Lost Teachings of Jesus: Missing Texts • Karma and Reincarnation
Elizabeth Clare Prophet and Staff of Summit University, Walking with the Master: Answering the Call of Jesus
Sources
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Saint Germain On Alchemy: Formulas for Self-Transformation.
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Masters and Their Retreats, s.v. “Jesus.”
Jesus and Kuthumi, Corona Class Lessons: For Those Who Would Teach Men the Way, p. 416.
Pearls of Wisdom, vol. 46, no. 34, August 24, 2003.
Jesus and Kuthumi, Corona Class Lessons: For Those Who Would Teach Men the Way.
Elizabeth Clare Prophet, October 7, 1984.
- ↑ Gen. 6:5.
- ↑ Gen. 4:25.
- ↑ Gen. 4:26.
- ↑ Ps. 16:10.
- ↑ John 3:30.
- ↑ Serapis Bey, Dossier on the Ascension, p. 33.
- ↑ Elizabeth Clare Prophet and Staff of Summit University, Walking with the Master: Answering the Call of Jesus
- ↑ John 15:13.
- ↑ Jesus, “From the Temples of Love: The Call to the Path of the Ascension,” Pearls of Wisdom, vol. 30, no. 27, July 5, 1987.