Maha Chohan/hi: Difference between revisions
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<blockquote>The Karmic Board has decreed that at this hour in the evolution of this lifewave and this planetary home, there has come that moment when the cosmic clock has struck. It is the hour when mankind must receive the Holy Spirit and prepare the body temple to be the dwelling place of the Most High God. In this hour of the appearing of that Spirit, it is necessary that certain numbers of mankind are purified to receive that Spirit. For unless they receive that flame and that awareness, the world as a place of evolution as you know it today will cease to exist. For you see, the balance of all phases of life and evolution cannot continue unless the Holy Spirit becomes the quickening energy and the life and light of man and woman. When the clock strikes midnight and 1974 gives way to 1975, in that moment will be the release of the spiral of the Holy Spirit to the entire planet.<ref>The Maha Chohan, “A Tabernacle of Witness for the Holy Spirit in the Final Quarter of the Century,” July 1, 1974.</ref></blockquote> | <blockquote>The Karmic Board has decreed that at this hour in the evolution of this lifewave and this planetary home, there has come that moment when the cosmic clock has struck. It is the hour when mankind must receive the Holy Spirit and prepare the body temple to be the dwelling place of the Most High God. In this hour of the appearing of that Spirit, it is necessary that certain numbers of mankind are purified to receive that Spirit. For unless they receive that flame and that awareness, the world as a place of evolution as you know it today will cease to exist. For you see, the balance of all phases of life and evolution cannot continue unless the Holy Spirit becomes the quickening energy and the life and light of man and woman. When the clock strikes midnight and 1974 gives way to 1975, in that moment will be the release of the spiral of the Holy Spirit to the entire planet.<ref>The Maha Chohan, “A Tabernacle of Witness for the Holy Spirit in the Final Quarter of the Century,” July 1, 1974.</ref></blockquote> |
Revision as of 16:54, 17 October 2024
महा चौहान पवित्र आत्मा के एक प्रतिनिधि हैं। जो इस पद को धारण करता है वह इस गृह की सभी जीवन प्रणालियों तथा सृष्टि देव साम्राज्य के लिए पिता-माता भगवान और अल्फा और ओमेगा की पवित्र आत्मा को दर्शाता है। महा चौहान का आश्रय स्थल का नाम टेम्पल ऑफ़ कम्फर्ट है तथा यह श्रीलंका के आकाशीय स्तर पर है - यह स्थान पवित्र आत्मा की लौ तथा कम्फर्ट की लौ आश्रय स्थल भी है।
इनकी समरूप जोड़ी सत्य की देवी पलास एथेना है।
"महान नायक" का कार्यालय
महा चौहान का अर्थ है "महान नायक," और महा चौहान सातों चौहानों के सरदार हैं (सात चौहान सात किरणों के निदेशक हैं)। पदानुक्रम के इस पद को प्राप्त करने के लिए एक ज़रूरी योग्यता है उस व्यक्ति का सातों किरणों में से प्रत्येक किरण पर निपुणता हासिल करना। ये सातों किरणें ही पवित्र आत्मा की श्वेत लौ में विलीन होती हैं। सातों चौहानों के साथ मिलकर, महा चौहान हम जीवात्माओं को पवित्र आत्मा की नौ प्रतिभाएं - जिनका ज़िक्र प्रथम कोरिंथियन १२:४-११ में किया गया है - ग्रहण करने के लिए तैयार करते हैं।
पहली तीन मूल जातियों - जिनमें से प्रत्येक ने स्वयं को आवंटित की गयी १४,००० साल के चक्र में अपनी दिव्य योजना पूरी की थी - के पास पवित्र आत्मा के अपने प्रतिनिधि थे जो अपने सभी सदस्यों के साथ ब्रह्मांडीय सेवा करने में निपुण हो पृथ्वी से ऊपर उठ ब्रह्माण्ड में चले गए।
अवतार
होमर
महा चौहान के कार्यालय को जो इस वक्त संभाल रहे हैं, उन्होंने होमर के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया था। ये एक नेत्रहीन कवि थे। इनकी दो महान रचनाओं - इलियड और ओडिसी - में इनकी समरूप जोड़ी पलास एथेना एक मुख्य किरदार हैं। इलियड में ट्रोजन युद्ध के अंतिम वर्ष की कहानी कही गयी है, और ओडिसी ट्रोजन युद्ध के नायकों में से एक ओडीसियस की घर वापसी पर केंद्रित है।
ऐतिहासिक रूप से होमर के बारे में बहुत कम जानकारी है, लेकिन अधिकांश विद्वानों का मानना है कि उन्होंने अपनी कविताओं की रचना (ईसा पूर्व) आठवीं या नौवीं शताब्दी में की थी। उस समय भी होमर ने अपनी चेतना को कम्फर्ट लौ के साथ मिलाया था और अपनी हृदय की लौ से जो विभा उन्होंने बरकरार रखी वह सृष्टि देव साम्राज्य के लिए एक बहुत बड़ा आशीर्वाद था।
चरवाहा, भारत
पृथ्वी पर उनका अंतिम जन्म भारत में हुआ, और इस जन्म में वे एक चरवाहे थे। चुपचाप काम करते हुए इस जन्म में जो प्रकाश उन्होंने फैलाया उससे लाखों जीवनधाराओं की लौ कायम रही। उन्होंने अपने चारों निचले शरीरों को पवित्र आत्मा की लौ में समर्पित किया और अपनी चेतना द्वारा सनत कुमार की चेतना को विश्व में फैलाया।
उस जन्म के बारे में बात करते हुए महा चौहान कहते हैं
मैं कई जन्मों चरवाहा था, तब मैं पहाड़ियों पर भेड़ों की देखभाल करता था और साथ ही भगवान से ज्ञान की प्रार्थना भी करता था ताकि उस ज्ञान को मैं अन्य लोगों को बता सकूं जो मेरे आस पास थे, जिनकी ज़िम्मेदारी ईश्वर ने मुझे दी थी। और इन सब के बीच देवदूत कई बार मुझे आकाशीय स्तर पर स्थित आत्मा की अकादमियों में ले गए जहाँ पर महा चौहान के सरंक्षण में मैंने बहुत कुछ सीखा और स्वयं को पवित्र आत्मा का आवरण पहनने के योग्य बनाया।[1]
पवित्र आत्मा
ईश्वर प्रकृति और मनुष्य दोनों को ही जीवनदायनी ऊर्जा देते हैं इसलिए ईश्वर के प्रतिनिधि को इतना सक्षम होना चाहिए वह अपनी चेतना के माध्यम से इन सभी में प्रवेश कर पाए करने और उनकी जीवन बनाए रखने वाली लौ को भी प्रज्वल्लित कर पाए।
वह तत्व जो पवित्र आत्मा की लौ से मेल खाता है वह प्राणवायु (oxygen) है। इसके बगैर न तो मनुष्य और न ही सृष्टि देव साम्राज्य जीवित रह सकता है। इसलिए महा चौहान की चेतना की तुलना महान केंद्रीय सूर्य के चुंबकीय क्षेत्र से की जा सकती है। वे उस ग्रह पर चुंबक केंद्रित करते हैं जो सूर्य से निकलने वाली उन वस्तुओं को पृथ्वी की ओर खींचता है जो जीवन को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं।
श्वेत-अग्नि के देवदूतों की टोलियां (जो श्रीलंका द्वीप में स्थित अल्फा और ओमेगा के आकाशीय आश्रय स्थल में शुद्ध श्वेत लौ की सेवा में सलंग्न हैं) इस कार्य में उनकी मदद करती हैं। ये देवदूत ग्रह के चार निचले शरीरों में प्राणवायु को बनाए रखने के लिए अल्फा और ओमेगा की शुद्ध श्वेत लौ से पवित्र अग्नि का दोहन करते हैं।
गुलाबी-लौ के देवदूत भी महा चौहान के सेवा में तैनात रहते हैं। इनके पास के एक कमरे में क्रिस्टल के एक प्याले में सुनहरी बुनियाद पर एक गुलाबी-श्वेत रंग की लौ जलती है जिसमें से दिव्य प्रेम की एक शक्तिशाली चमक निकलती है। ये सारे देवदूत इस लौ से निकलने वाली लपटों को पृथ्वी के कोने कोने में उन सभी मनुष्यों के दिलों तक ले जाते हैं जो ईश्वर को पाने के लिए तरसते हैं।
पेंटेकोस्ट के दिन जब शिष्यों के ह्रदय अत्यंत निर्मल और पावन हो गए थे, पवित्र आत्मा की जुड़वां लौ आग की लपलपाती हुई जिह्वा के रूप में प्रकट हुई।[2]जब ईसा मसीह का ईसाई धर्म का विधिवत सदस्य बनने का संस्कार () किया गया था तो उन्होंने ईश्वर को एक कबूतर के रूप में नीचे उतरते हुए एव अपने ऊपर प्रकाश डालते हुए देखा था।"[3] कबूतर पवित्र आत्मा की जुड़वां लौ का भौतिक स्वरुप है, जिसे पंखों के साथ एक वी के रूप में भी देखा जा सकता है। यह देवता के स्त्री और पुरुष ध्रुवों को दर्शाता है और यह भी याद दिलाता है कि जुड़वाँ लौ ईश्वर के उभयलिंगी स्वभाव को प्रदर्शित करती हैं।
महा चौहान के आश्रय स्थल में और उनकी उपस्थिति में व्यक्ति को पवित्र आत्मा की लौ का अनुभव होता है। यहां ईश्वर के पवित्र अग्निश्वास की धड़कन भी महसूस होती है जो केंद्रीय सूर्य से पृथ्वी के प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय में जीवन के प्रवाह को लाती है।
महा चौहान ने पवित्र आत्मा को एक महान एकीकृत समन्वयक के रूप में संदर्भित किया है, जो
...एक शक्तिशाली बुनकर की तरह दिव्यगुरु के प्रकाश और प्रेम का एक बेजोड़ वस्त्र बुनता है। जब मनुष्य अपना ध्यान ईश्वर पर केंद्रित करता है और उनके समक्ष अपनी आशाएं और इच्छाएं व्यक्त कर ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करता है तो ईश्वर की ओर से खुशनुमा और दीप्तिमान रोशनी की उज्ज्वल पवित्र किरणें पृथ्वी पर उतरती हैं तथा मनुष्यों के दिलों में प्रवेश कर लेती हैं।
ईश्वर की पवित्र आत्मा प्रकाश के एक छोटे से बीज के रूप में पृथ्वी पर प्रत्येक पदार्थ में प्रवेश करती है और फिर रूप और अस्तित्व, विचार और धारणा की प्रत्येक कोशिका में फैल अध्यात्मविद्या और चेतना का भण्डार बन जाती है। बहुत से लोग यह जान नहीं पाते परन्तु कुछ एक ज़रूर पहचान जाते हैं। अनंत प्रसन्नता के द्योतक इस दिव्य ज्ञान का प्रकाश अनश्वर है। मनुष्य इस ज्ञान को शनैः शनैः अपनी चेतना में भरता है।[4]
१९७४ में महा चौहान ने कहा था:
The Karmic Board has decreed that at this hour in the evolution of this lifewave and this planetary home, there has come that moment when the cosmic clock has struck. It is the hour when mankind must receive the Holy Spirit and prepare the body temple to be the dwelling place of the Most High God. In this hour of the appearing of that Spirit, it is necessary that certain numbers of mankind are purified to receive that Spirit. For unless they receive that flame and that awareness, the world as a place of evolution as you know it today will cease to exist. For you see, the balance of all phases of life and evolution cannot continue unless the Holy Spirit becomes the quickening energy and the life and light of man and woman. When the clock strikes midnight and 1974 gives way to 1975, in that moment will be the release of the spiral of the Holy Spirit to the entire planet.[5]
Then the Maha Chohan told us that the release of the final quarter of the century was “a cosmic spiral that will be for the full realization of the Holy Spirit in man, in woman, in nature, in holy child. And the probation will be a twenty-five-year period to see whether enough among mankind will be able to maintain a tabernacle for the Holy Spirit through sacrifice, surrender and self-purification.”[6]
The Maha Chohan ministers to every person on earth as we enter this world and as we exit it. At the moment of that birth, he is present to breathe the breath of life into the body and to ignite the threefold flame that is lowered into manifestation in the secret chamber of the heart.
The Maha Chohan also attends at the transition called death, when he comes to withdraw the flame of life and to withdraw the holy breath. The flame, or divine spark, returns to the Holy Christ Self, and the soul, clothed in the etheric body, also returns to the level of the Holy Christ Self. Similarly, he will minister to you at every crossroad in life, if you will but pause for a moment when making decisions, think of the Holy Spirit and simply say the mantra, “Come, Holy Spirit, enlighten me.”
The radiation of the Maha Chohan is drawn through the musical composition “Homing,” by Arthur Salmon.
See also
Sources
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Masters and Their Retreats, s.v. “The Maha Chohan.”
- ↑ महा चौहान, "मैं पवित्र अग्नि की अदालत के समक्ष ईश्वर के सभी अनुयायियों के ज्ञानवर्धन की प्रार्थना करता हूँ।"Pearls of Wisdom, vol. ३८, no. ३३, जुलाई ३०, १९९५.
- ↑ Acts२:३।
- ↑ Matt३:१६
- ↑ द महा चौहान, “द डिसेंट ऑफ़ द होली स्पिरिट,” Pearls of Wisdom, vol. ७, no. ४८, २७ नवम्बर, १९६४.
- ↑ The Maha Chohan, “A Tabernacle of Witness for the Holy Spirit in the Final Quarter of the Century,” July 1, 1974.
- ↑ Ibid.