गौतम बुद्ध
“करुणामय व्यक्ति” गौतम बुद्ध विश्व के भगवान का पद धारण करते हैं। (बुक ऑफ़ रेवेलशन ११.४ में इन्हें “पृथ्वी का भगवान” कहा गया है)। ये गोबी रेगिस्तान के ऊपर स्थित शंबाला आश्रय स्थल के प्रमुख हैं। यहां से वह पृथ्वी के विकास के लिए जीवन की त्रिदेव ज्योत को बनाए रखने का काम करते हैं। गौतम (जिन्होनें ५६३ बी सी में सिद्धार्थ गौतम के रूप में जन्म लिया था) एक उत्तम शिक्षक हैं - इन्होनें जीवात्मा की दस सिद्धियों और चार श्रेष्ठ सत्यों में निपुणता प्राप्त की थी। इन्होनें आष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प,सम्यक वाक्, सम्यक कर्मांत,सम्यक आजीव,सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि) में भी महारत हासिल की थी। ये समिट यूनिवर्सिटी तथा रोशनी की मशाल ले जाने के लिए ज्योति माता के उद्देश्य के प्रायोजक हैं।
गौतम का जन्म उस समय हुआ जब हिंदू धर्म अपने पतन के अंतिम चरण में था। पुरोहित लोग पक्षपात करते थे, वे जनता को ईश्वरीय ज्ञान से विमुख रखते थे जिससे जनता अज्ञानी रहती थी। जाति व्यवस्था धर्म के माध्यम से मुक्ति का साधन बनने के बजाय आत्मा को कैद करने का साधन बन गई थी। राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में जन्मेन गौतम ने ज्ञान प्राप्त करने के लिए महल, सत्ता, पत्नी और बेटे को छोड़ दिया ताकि वे लोगों को ज्ञान दे पाएं।
प्रारंभिक जीवन
गौतम बुद्ध का जन्म उत्तरी भारत में हुआ था। वह शाक्य साम्राज्य के शासक राजा शुद्धोदन और रानी महामाया के पुत्र थे, और इस प्रकार वे क्षत्रिय (योद्धा या शासक) जाति के सदस्य थे।
प्राचीन पाली ग्रंथों और बौद्ध धर्मग्रंथों में लिखा है कि गौतम के जन्म से पहले उनकी मां महामाया ने एक सपना देखा था जिसमे एक सुंदर श्वेत-धवल हाथी उनके बगल से उनके गर्भ में प्रवेश कर रहा है। स्वप्न का अर्थ जानने के लिए बुलाये गए ब्राह्मणों ने उन्हें बताया कि उनकी कोख से एक पुत्र जन्म लेगा जो या तो एक सार्वभौमिक सम्राट बनेगा या फिर बुद्ध।
अपनी गर्भावस्था के अंतिम दिनों के दौरान, रानी ने अपने माता-पिता से मिलने के लिए देवदहा की यात्रा शुरू की, जैसा कि भारत में प्रथा थी। रास्ते में वह अपने परिचारकों के साथ लुम्बिनी पार्क में रुकी और साल के पेड़ की एक फूल वाली शाखा के पास पहुंची। वहां, खिले हुए पेड़ के नीचे, बुद्ध का जन्म मई महीने की पूर्णिमा के दिन हुआ था।
जन्म के पांचवें दिन, महल में नामकरण समारोह में १०८ ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया। राजा ने उनमें से आठ सबसे अधिक विद्वानों को बच्चे के शारीरिक चिह्नों और शारीरिक विशेषताओं की व्याख्या करके उसके भाग्य को "पढ़ने" के लिए बुलाया।
उनमें से सात विद्वान इस बात पर सहमत थे कि यदि वह घर पर रहेगा, तो वह भारत को एकजुट करने वाला एक सार्वभौमिक राजा बन जाएगा; लेकिन अगर वह घर से बाहर निकला, तो वह बुद्ध बन जाएगा और दुनिया से अज्ञानता का पर्दा हटाने का काम करेगा। समूह के आठवें और सबसे छोटे विद्वान कोंडान्या ने यह घोषणा की कि वह निश्चित रूप से बुद्ध बनेगा। उन्होंने यह भी कहा कि बालक जिन चार चीज़ें देखने के बाद दुनिया को त्याग देगा वह हैं: एक बूढ़ा आदमी, एक बीमार आदमी, एक मृत आदमी और एक पवित्र आदमी।
बच्चे का नाम सिद्धार्थ रखा गया, सिद्धार्थ का अर्थ है “जिसका उद्देश्य पूरा हो गया हो”। जन्म के सात दिन बाद, सिद्धार्थ की माँ का निधन हो गया, और उनका पालन-पोषण उनकी बहन महाप्रजापति ने किया, जो बाद में उनकी पहली महिला शिष्यों में से एक बनीं।
राजा, ब्राह्मणों की भविष्यवाणियों और अपने उत्तराधिकारी को खोने की संभावना से अत्याधिक चिंतित थे इसलिए उन्होंने अपने बेटे को दर्द और पीड़ा से बचाने के लिए हर सावधानी बरती। बालक सिद्धार्थ को हर प्रकार की सुख-सुविधा और विलासिता का जीवन दिया गया। वे सदा चालीस हजार नर्तकियों से घिरे हुए अपने महलों में रहते थे।
अंगुत्तर निकाय (एक प्रामाणिक पाठ) में, गौतम ने अपने पालन-पोषण का वर्णन अपने शब्दों में किया है:
मेरी देखभाल अत्यंत कोमलता से की गई... अत्यंत, असीम रूप से। मेरे पिता ने महल में खास मेरे लिए कमल के तालाब बनाए गए थे - एक तालाब नीले कमल के फूलों का था, एक सफेद कमल के फूलों का और एक लाल कमल के फूलों का... मेरे सिर हमेशा छाता से ढका जाता था ताकि में सर्दी, गर्मी, धूल, भूसी, या ओस से परेशान न होऊं। मैं सदा अपने तीन महलों में रहता था,... ठंड के दौरान में एक महल में रहता था; एक में गर्मियों में; और एक में बरसात के मौसम में। बरसात के मौसम में महल में रहते हुए, संगीतकारों, गायकों और महिला नर्तकियों से घिरे हुए, चार महीने तक मैं महल के नीचे भी नहीं उतरता था। हेलेना रोएरिच, फॉउण्डेशन्स ऑफ़ बुद्धिज़्म (न्यूयॉर्क: अग्नि योग सोसायटी, १९७१), सातवां पृष्ठ।
सोलह साल की उम्र में, हथियारों की प्रतियोगिता में अपनी कुशलता साबित करने के बाद, राजकुमार सिद्धार्थ ने अपनी ममेरी बहन यशोधरा से शादी की। परन्तु इसके कुछ समय बाद ही वह उदासीन और विचारमग्न रहने लगे। उनतीस साल की उम्र में उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड आया - तब वे यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने चार यात्राएं की और प्रत्येक यात्रा के दौरान उन्हें एक महत्वपूर्ण दृश्य देखने को मिला।
सर्व प्रथम उसका सामना एक बहुत बूढ़े आदमी से हुआ - उदासी से भरा हुआ वह तेजहीन व्यक्ति एक छड़ी पर झुका हुआ खड़ा था। इसके बाद उन्होंने एक रोगग्रस्त व्यक्ति को देखा जो अत्यंत दयनीय अवस्था में रास्ते में पड़ा हुआ था। फिर उन्होंने एक लाश देखी और अंत में एक शीश मुंडाए हुए, हाथ में भिक्षापात्र लिए, पीले रंग के वस्त्र पहने एक साधु को देखा। पहले तीन दृश्यों को देखकर वे करुणा से अब्भिभूत हो गए और उन्हें एहसास हुआ कि जीवन बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु के अधीन है। चौथे दृश्य ने उन्हें इन स्थितियों पर काबू पाने की संभावना का ओर संकेत दिया और उन्हें पीड़ा का समाधान खोजने के लिए अपनी सांसारिक दुनिया को छोड़ने के लिए प्रेरित किया।
संन्यास
महल लौटते समय उन्हें अपने बेटे के जन्म की खबर मिली, जिसका नाम उन्होंने राहुल या "बाधा" रखा। उस रात उन्होंने अपने सारथी को अपने पसंदीदा घोड़े कंथक पर काठी कसने का आदेश दिया और शहर छोड़ने का निश्चय किया। शहर छोड़ने से पहले वह अपनी सोती हुई पत्नी और बेटे को देखने के लिए शयनकक्ष में गए और उनसे विदाई ली। फिर वह घर से निकल गए, पूरी रात यात्रा करने के बाद उन्होंने सुबह होने पर उसने एक तपस्वी का भेष धारण किया, कपड़े बदले, और सारथी को अपने पिता के महल में वापिस भेज दिया।
इस प्रकार गौतम ने एक भ्रमणशील भिक्षु का जीवन शुरू किया। ज्ञान पाने की इच्छा लिए वे एक विद्वान शिक्षक की तलाश में निकल पड़े। वे विभिन्न शिक्षकों से मिले और उनके शिक्षाएं प्राप्त कीं। परन्तु इससे उन्हें संतुष्टि नहीं हुई। असंतुष्ट और बेचैन गौतम एक ऐसे स्थायी सत्य की खोज में थे जो दुनिया की मोह माया से परे हो।
मगध देश में यात्रा करते समय उनका सुंदर चेहरा और बलिष्ठ काया आकर्षण का केन्द्र थी। उरुवेला के पास सेनानिगामा नामक गांव में वे पांच तपस्वियों के एक समूह से मिले। इन पांच तपस्वियों में कोंडान्या नामक एक ब्राह्मण था, जिसने आगे चलकर जिसने गौतम के बुद्धत्व की भविष्यवाणी की थी।
लगभग छह वर्षों तक गौतम ने इस स्थान पर रहकर कठोर तपस्या की, जिसका वर्णन उन्होंने अपनी ग्रन्थ मज्जिमा निकाय में किया है।
पोषण की कमी के कारण मेरे बाजू और टाँगे सूखकर गांठदार जोड़ों वाली मुरझाई हुई लताओं की तरह हो गए;... मेरी आँखें अंदर धंस गयीं, वे ऐसी प्रतीत होती थी मानों किसी गहरे कुएँ के तल पर पानी चमकता हुआ दिखाई देता है;... मेरे पेट की त्वचा मेरी रीढ़ की हड्डी से चिपकी हुई प्रतीत होती थी...[1]
गौतम इतने कमजोर हो गए थे कि एक वे बार बेहोश हो गए, इतना कि उन्हें मृत मान लिया गया। कुछ वृत्तांतों के अनुसार वे एक चरवाहे को नीचे पड़े मिले, और चरवाहे ने उन्हें गर्म दूध की कुछ बूंदें पिला कर ठीक किया। कुछ अन्य लोग कहते हैं कि उन्हें देवताओं ने पुनर्जीवित किया था। इसके बाद गौतम को तपस्या की निरर्थकता समझ आ गई और उन्होंने स्वयं आत्मज्ञान का मार्ग खोजने का निर्णय किया। उन्होंने तपस्या के मार्ग का त्याग कर दिया जिसके फलस्वरूप उनके पांच साथियों ने उन्हें त्याग दिया।
बोधि वृक्ष
एक दिन एक ग्रामीण की बेटी सुजाता ने उन्हें चावल का दूध खिलाया - "यह भोजन इतना अद्भुत था ... कि मेरे भगवान (गौतम) को अपने अंदर शक्ति और स्फूर्ति महसूस हुई, उपवास के दिन मानों एक सपने थे।"[2] वे फिर वहीँ पर बोधि वृक्ष (जो ज्ञानोदय को दर्शाता है) के नीचे बैठ गए और तब तक वहीँ बैठे रहे जब तक कि उन्हें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो गई। इस स्थान को अब इममूवेबल स्पॉट (अचल स्थान) के रूप में जाना जाता है।
उस समय एक दुष्ट व्यक्ति मारा ने उनको रोकने के कई प्रयास किये, उन्हें कई तरह के प्रलोभन भी दिए - ये प्रलोभन उसी प्रकार के थे जिस प्रकार शैतान ने जंगल में उपवास के दौरान ईसा को दिए थे।
The Dhammapada records the words of Mara, as she assailed Gautama: “Lean, suffering, ill-favored man, Live! Death is your neighbor. Death has a thousand hands, you have only two. Live! Live and do good, live holy, and taste reward. Why do you struggle? Hard is struggle, hard to struggle all the time.”
Unmoved, he sat under the Bo tree while Mara continued her attack—first in the form of desire, parading voluptuous goddesses and dancing girls before him, then in the guise of death, assailing him with hurricanes, torrential rains, flaming rocks, boiling mud, fierce soldiers and beasts—and finally darkness. Yet still, Gautama remained unmoved.
As a last resort, the temptress challenged his right to be doing what he was doing. Siddhartha then tapped the earth,[3] and the earth thundered her answer: “I bear you witness!” All the hosts of the Lord and the elemental beings responded and acclaimed his right to pursue the enlightenment of the Buddha—whereupon Mara fled.
Having defeated Mara, Gautama spent the rest of the night in deep meditation under the tree, recalling his former embodiments, attaining the “superhuman divine eye” (the ability to see the passing away and rebirth of beings), and realizing the Four Noble Truths. In his own recorded words: “Ignorance was dispelled, knowledge arose. Darkness was dispelled, light arose.”[4]
Thus, he attained Enlightenment, or the Awakening, during the night of the full-moon day of the month of May, about the year 528 B.C. His being was transformed, and he became the Buddha.
The event was of cosmic import. All created things filled the morning air with their rejoicings and the earth quaked six ways with wonder. Ten thousand galaxies shuddered in awe as lotuses bloomed on every tree, turning the entire universe into “a bouquet of flowers sent whirling through the air.”[5]
For a total of forty-nine days he was deep in rapture, after which he again turned his attention to the world. He found Mara waiting for him with one last temptation: “How can your experience be translated into words? Return to Nirvana. Do not try to deliver your message to the world, for no one will comprehend it. Remain in bliss!” But Buddha replied: “There will be some who will understand,” and Mara vanished from his life forever.
Teaching
Contemplating whom he should first teach, he decided to return to the five ascetics who had left him. He began a journey of over one hundred miles to Benares and delivered to his old companions his first sermon, known as the Dhammacakkappavattana-sutta, or “Setting in Motion the Wheel of Truth.”
At the end of the sermon, in which he revealed the key discovery of his quest—the Four Noble Truths, the Eightfold Path, and the Middle Way—he accepted the five monks as the first members of his order. Kondañña was the first to grasp the teaching.
For forty-five years, Gautama walked the dusty roads of India, preaching the Dhamma (universal Doctrine), which led to the founding of Buddhism. He established the sangha (community) that soon numbered over twelve hundred devotees, eventually including his entire family—his father, aunt, wife, and son. When the people questioned him as to his identity, he answered, “I am awake”—hence, the Buddha, meaning “Enlightened One” or “Awakened One.”
Passing
At the age of eighty, Gautama became seriously ill and almost died, but revived himself, thinking it was not right to die without preparing his disciples. By sheer determination, he recovered and instructed Ananda, his cousin and close disciple, that the order should live by making themselves an island—by becoming their own refuge and making the Dhamma their island, their refuge forever.
After announcing that he would die in three months, he traveled through several villages and then stayed with Cunda, the goldsmith, one of his devoted followers. According to generally accepted tradition, Cunda invited Gautama to partake of sukara-maddava—a dish he had prepared unknowingly with poisoned mushrooms. After the meal, Gautama became violently ill, but bore his pain without complaint.
His only concern was to console Cunda, who might feel responsible for his death. And thus, he compassionately asked Ananda to tell Cunda that of all the meals he had eaten, only two stood out as special blessings—one was the meal served by Sujata before his enlightenment, and the other was the food from Cunda which opened the gates to his transition.
He passed during the full-moon of May, c. 483 B.C., after again advising Ananda that the Dhamma—the Truth—must be his master and reminding the monks of the transiency of all conditioned things.
Legacy
Following the passing of Gautama, Buddhism began to develop in two major directions, leading to the establishment of the Hinayana (“little vehicle”) and the Mahayana (“great vehicle”) schools of Buddhism, from which many further subgroups evolved.
Adherents of the Hinayana school believe their teachings represent the original Buddhist doctrine taught by Gautama, and therefore refer to their path as the Theravada, or “Way of the Elders.”
The traditional Theravadin outlook centers around the monastic way of life and emphasizes the necessity for self-sacrifice and individual enlightenment in order to help others. Their goal is to become an arhat—perfected disciple—and enter Nirvana.
The Mahayanists, who believe that the Theravadins’ strict observance of precepts departs from the true spirit of the Buddha, concentrate more on emulating the Buddha’s life, stressing good works and compassion toward others in the process of gaining enlightenment. The Theravadins, however, claim that the Mahayanists have polluted the pure stream of Gautama’s teaching by incorporating more liberal doctrines and interpretations.
The Mahayanists consider their school to be the “greater vehicle,” as it provides more for the layman. Their ideal is to become a bodhisattva—one who attains Nirvana but voluntarily returns to the world to assist others in obtaining the same goal.
Gautama’s work today
Gautama Buddha was the first initiate to serve under Sanat Kumara, hence the one chosen to succeed him in the office of Lord of the World. On January 1, 1956, Sanat Kumara placed his mantle on Lord Gautama, whereupon the Chela par excellence of the Great Guru also became the hierarch of Shamballa.
Gautama Buddha today holds the office of Lord of the World (referred to as “God of the Earth” in Revelation 11:4). At inner levels, he sustains the threefold flame of life, the divine spark, for all children of God on earth.
Speaking of the great service Lord Gautama renders to all life in his office as Lord of the World, Maitreya said on January 1, 1986:
The Lord of the World does sustain the threefold flame in the evolutions of earth by a filigree light extending from his heart. This, then, is the bypassing of the individual’s karma whereby there is so much blackness around the heart that the spiritual arteries or the crystal cord have been cut off.
The comparison of this is seen when the arteries in the physical body become so clogged with debris that the area of the flow of blood becomes greatly diminished until it becomes a point of insufficiency and the heart can no longer sustain life. This is comparable to what has happened on the astral plane.
So Sanat Kumara came to earth to keep the flame of life. And so does Gautama Buddha keep this threefold flame at Shamballa, and he is a part of every living heart. Therefore, as the disciple approaches the Path, he understands that its goal is to come to the place where the threefold flame is developed enough here below within his own heart that indeed, with or without the filigree thread from the heart of Gautama Buddha, he is able to sustain life and soul and consciousness and the initiatic path.
Beloved ones, this step in itself is an accomplishment that few upon this planet have attained to. You have no idea how you would feel or be or behave if Gautama Buddha withdrew from you that support of the filigree thread and the momentum of his own heartbeat and threefold flame. Most people, especially the youth, do not take into consideration what is the source of the life that they experience in exuberance and joy.
Of this gift, Gautama himself said on December 31, 1983:
I am very observant. I observe you by the contact of my flame through the thread-contact I maintain to the threefold flame of your heart—sustaining it as I do until you pass from the seat-of-the-soul chakra to the very heart of hearts [the secret chamber of the heart], and you yourself are able by attainment to sustain that flame and its burning in this octave.
Did anyone here ever recall himself igniting his own threefold flame at birth? Has anyone here ever remembered tending its fire or keeping it burning? Beloved hearts, recognize that acts of love and valor and honor and selflessness surely contribute to this flame. But a higher power and a higher Source does keep that flame until you, yourself, are one with that higher power—your own Christ Self.
Therefore, all receive the boost of my heart flame and impetus. And as that light passes through me from the Godhead, I therefore perceive many things about you and your everyday life that you might think beyond mention or notice of a Lord of the World, who must be, indeed, very busy.
Well, indeed, I am! But I am never too busy to notice the elements of the Path presented by parents and in families and communities and in the schoolrooms of life everywhere. For I make it my business to see to it that some element of the path of initiation, moving toward the heart of Jesus and Maitreya, is a part of the life of every growing child.
Retreats
► Main article: Shamballa
► Main article: Western Shamballa
Gautama Buddha is the sponsor of Summit University and the hierarch of Shamballa, the etheric retreat of the Lord of the World located over the Gobi Desert.
In 1981, Gautama established an extension of this retreat, called the Western Shamballa, in the etheric octave over the Heart of the Inner Retreat at the Royal Teton Ranch.
Gautama Buddha’s keynote is “Moonlight and Roses.” The “Ode to Joy” from Beethoven’s Ninth Symphony also gives us direct attunement with the Lord of the World.
See also
Sources
Pearls of Wisdom, vol. 26, no. 4, January 23, 1983.
Pearls of Wisdom, vol. 32, no. 30, July 23, 1989.
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Masters and Their Retreats, s.v. “Gautama Buddha.”
Elizabeth Clare Prophet, Inner Perspectives.
- ↑ एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, १५वां संस्करण, एस.वी. "बुद्ध।"
- ↑ एडविन अर्नोल्ड, द लाइट ऑफ एशिया (लंदन: केगन पॉल, ट्रेंच, ट्रबनेर एंड कंपनी, १९३०), पृष्ठ संख्या ९६.
- ↑ with the “earth-touching mudra”—left hand upturned in lap, right hand pointed downward, touching earth.
- ↑ Edward J. Thomas, The Life of Buddha as Legend and History (New York: Alfred A. Knopf, 1927), pp. 66-68, quoted in Clarence H. Hamilton, ed., Buddhism: A Religion of Infinite Compassion (New York: The Liberal Arts Press, 1952), pp. 22–23.
- ↑ Huston Smith, The Religions of Man (New York: Harper & Row, Harper Colophon Books, 1958), p. 84.