आत्मा
[ यूनानी शब्द क्रिस्टोस "अभिषिक्त" से लिया गया ] मसीहा [यहूदी, सीरियाई भाषा का शब्द "अभिषिक्त"]; ईसा मसीह, जो ईश्वर के प्रकाश (पुत्र) द्वारा पूरी तरह भरा हुआ और अभिषिक्त है। शब्द, लोगोस, त्रिदेवों में दूसरा देव, "शब्द ने देह धारण की और हमारे बीच वास करने लगा (और हमने उसकी महिमा को ऐसे धारण किया जैसे पुत्र पिता की महिमा को धारण करता है), अनुग्रह और सच्चाई से भरपूर.... वह सच्ची रोशनी थी जो दुनिया में आने वाले हर आदमी को रोशन करती है। वह जगत में था, और जगत उसके द्वारा रचा गया, पर जगतवालों ने उसे नहीं पहिचाना।”[1]
हिन्दू त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, और शिव में विष्णु "आत्मा" के संरक्षक हैं; अवतार, ईश्वर-पुरुष, अंधकार को दूर करने वाला, गुरु।
सार्वभौमिक आत्मा
सार्वभौमिक चेतना आत्मा और पदार्थ के स्तरों के बीच मध्यस्थता करती है; स्व चेतना का यह रूप ईश्वर की आत्मा और मनुष्य की जीवात्मा के बीच की डोरी है। सार्वभौमिक चेतना (आठ के प्रवाह) के गठजोड़ को बनाए रखती है। इसके माध्यम से पिता (आत्मा) की ऊर्जा माँ (पदार्थ) के ब्रह्मांडीय गर्भ (साँचा) में प्रयासरत बच्चों को उनकी जीवात्माओं द्वारा ईश्वरीय लौ के क्रिस्टलीकरण (चेतना के बोध) के लिए पारित करती हैं। इस प्रक्रिया को भौतिकीकरण (मातृ-प्राप्ति), "उत्पत्ति" कहा जाता है। वह प्रक्रिया जिसके द्वारा जीवात्मा के पास एकत्रित हुई माँ की ऊर्जा आत्मिक चेतना से मिलते हुए पिता तक पहुँचती हैं उसे आध्यात्मीकरण (आत्मा का बोध), "उदय" कहा जाता है। वह प्रक्रिया जिसके द्वारा जीवात्मा की ऊर्जा पदार्थ से होते हुए वापिस आत्मा में लौटती है उसे उत्कृष्ट क्रिया या रूपांतरण कहते हैं।
इस प्रक्रिया की समाप्ति जीवात्मा द्वारा तब अनुभव की जाती है, जब वह आध्यात्मिक उत्थान द्वारा अपने ईश्वरीय स्वरुप के साथ मिल जाती है। आध्यात्मिक उत्थान उस वचन का पूर्ण होना है जो ईसा मसीह ने पृथ्वी पर दिया था: "उस दिन तुम जानोगे कि मैं अपने पिता में निहित हूं, तुम मुझ में, और मैं तुम में... यदि कोई मुझ से प्रेम करता है वह मेरी बातें मानेगा, और मेरा पिता उस से प्रेम रखेगा, और हम सब उसके पास आएंगे, और उसके साथ वास करेंगे।"[2]
सृष्टि में ईश्वरत्व की स्त्रीत्व और पुरुषत्व ऊर्जा का मिश्रण सार्वभौमिक चेतना के माध्यम से होता है, लोगोस जिसके बिना "कोई भी चीज़ नहीं बनी"। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से सूक्ष्म जगत तक, आत्मा (ईश्वरीय स्वरुप) और जीवात्मा के बीच प्रकाश का प्रवाह चेतना द्वारा अंक आठ की आकृति में होता है - यही चेतना अहम् ब्रह्मास्मि का अवतार है। क्योंकि ईसा मसीह ईश्वर का अवतार है, वे कह सकते हैं, "मैं [मुझमें निहित ईश्वरीय तत्त्व] एक खुला दरवाजा (स्वर्ग और पृथ्वी के लिए) हूँ जिसे कोई बंद नहीं कर सकता" और "मुझमें निहित ईश्वरीय तत्त्व ने स्वर्ग और पृथ्वी दोनों स्थानों पर मुझे सारी शक्ति दी है" और "देखो, मैं [मुझ में निहित ईश्वरीय तत्त्व] हमेशा जीवित रहता हूँ - यत पिंडे-तत ब्रह्माण्डे (as Above, so below)- मुझे स्वर्ग में जाने के मार्ग पता है, नर्क और मृत्यु का मार्ग भी। ईश्वर जिसे भी इस मार्ग के बारे में बताना चाहते हैं, में उसे ये बता देता हूँ।
इस बात की पुष्टि आज भी ने सिर्फ दिव्यगुरु ईसा मसीह बल्कि आपकी स्व चेतना द्वारा की जाती है। इस प्रकार सार्वभौमिक चेतना वास्तव में आपकी अपनी स्व चेतना के माध्यम से आपमें ईश्वरीय तत्त्व उपस्थिति का भान कराता है। यथार्थ में यह ब्रह्मांडीय चेतना का सच्चा समागम है - ब्रह्मांडीय चेतना ईश्वर के प्रत्येक बच्चे में वैयक्तिक रूप से उपस्थित है। ईश्वर के पुत्र अपनी चेतना में ईश्वर के सभी बच्चों के लिए मैक्सिम लाइट का भरोसा रखते हैं।
एक चैतन्य व्यक्ति
शब्द "चेतना" या "चैतन्य व्यक्ति" भी पदानुक्रम में एक पद को दर्शाता है जो उन लोगों द्वारा धारण किया जाता है जिन्होंने पवित्र आत्मा की सात किरणों और सात चक्रों पर आत्म-निपुणता प्राप्त कर ली है। चेतना में निपुणता का अर्थ है अपनी त्रिदेव ज्योत - ईश्वर के प्रेम, शक्ति और विवेक के गुणों - को संतुलित करना। इससे चेतना में सामन्जस्य बैठता है और चार निचले शरीरों में मातृ लौ कुण्डलिनी द्वारा सातों किरणों और चक्रों में महारत हासिल होती है। आध्यात्मिक उत्थान के निर्दिष्ट समय पर अभिषिक्त जीवात्मा अपने अस्तित्व, चेतना और दुनिया के प्रत्येक परमाणु और कोशिका के रूपांतरण के लिए पैरों के नीचे से त्रिदेव लौ को चक्राकार गति से अपनी पूरी काया में ऊपर की ओर उठाती है। चेतना की इस गौरवान्वित लौ से चार निचले शरीरों और जीवात्मा की परिपूर्णता और बढ़ोतरी रूप परिवर्तन के आरंभ के दौरान आंशिक रूप से होती है, जो पुनरुत्थान के माध्यम से बढ़ती है और आध्यात्मिक उत्थान के अनुष्ठान में तीव्रता से पूर्णता प्राप्त करती है।
व्यक्तिगत चेतना
व्यक्तिगत स्व चेतना, व्यक्तिगत चेतना, प्रत्येक जीवात्मा की आरंभकर्ता है। जब कोई व्यक्ति ईश्वरत्व के मार्ग पर कई दीक्षाओं को पार करता है, जिसमें "दहलीज़ पर रहने वाला दुष्ट की हत्या" भी शामिल है, तो वह चैतन्य कहलाने का अधिकार अर्जित करता है और ईश्वर का पुत्र या पुत्री बेटों की उपाधि प्राप्त करता है। पिछले युगों में जिन लोगों ने यह उपाधि अर्जित की, उन्होंने या तो उस उपलब्धि को पूरी तरह से घटा दिया या आगामी जन्मों में इसे प्रकट करने में विफल रहे। इस युग में इन लोगो से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी आंतरिक ईश्वर-निपुणता को सामने लाएँ और भौतिक अवतार में रहते हुए इसे भौतिक स्तर पर पूर्ण करें।
इसलिए, भगवान के पुत्रों और पुत्रियों को उनके आंतरिक प्रकाश के अनुरूप दिखने में सहायता करने के लिए ग्रेट व्हाइट ब्रदरहुड के गुरुओं ने दिव्यगुरूओं और उनके दिव्यदूतों के माध्यम से अपनी शिक्षाएं प्रकाशित की हैं। संत जर्मेन ने इस वर्ग के सदस्यों को क्रमिक मासिक पाठ प्रदान करने वाली कीपर्स ऑफ द फ्लेम बिरादरी की स्थापना की है, जो दुनिया भर में जीवन की लौ को बनाए रखने के लिए समर्पित है। शिष्यत्व की दीक्षाओं के सफल समापन से पहले, व्यक्ति को "ईश्वर के पुत्र" शब्द के बजाए ईश्वर की संतान के रूप में संदर्भित किया जाता है। ईश्वर का पुत्र पूर्ण ईश्वरत्व को दर्शाता है जिसमें मनुष्य की जीवात्मा ईश्वर का आत्मा में लीन हो जाती है। ईसा मसीह इसका एक उदाहरण हैं।
आत्मा की चेतना का विस्तार करते हुए, चैतन्य व्यक्ति ग्रह के स्तर पर आत्मिक चेतना को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ता है और ग्रह के विकास के लिए चैतन्य लौ का संतुलन बनाए रखने में सक्षम होता है। जब यह हासिल हो जाता है, तो वह स्वर्गीय पदक्रम के सदस्यों की सहायता करता है जो विश्व शिक्षक और ग्रह चेतना के कार्यालय के तहत काम करते हैं।
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अधिक जानकारी के लिए
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Path of the Universal Christ.
स्रोत
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Saint Germain On Alchemy: Formulas for Self-Transformation.