शिष्यता (Discipleship)
शिष्यत्व आत्मा और श्वेत महासंघ की शिक्षाओं का अनुयायी होने की स्थिति है। यह अनुशासन के माध्यम से बुद्ध, विश्व शिक्षकों, और दिव्यगुरूओं की दीक्षा में निपुणता प्राप्त करने की प्रक्रिया है।
दीक्षा के विभिन्न चरण
जीवंत शब्दों के अंतर्गत शिष्यत्व में दीक्षा के चरण:
(1) विद्यार्थी: इस चरण के अंतर्गत व्यक्ति गुरु के लेखन और शिक्षाओं का अध्ययन कर उसका छात्र तो बन जाता है, परन्तु अपने गुरु के प्रति कोई विशेष जिम्मेदारी ग्रहण नहीं करता। वह अपने समुदाय में आने-जाने, अपने अनुयायियों की संगति और उनके समर्पण के फल का आनंद लेने के लिए स्वतंत्र है लेकिन उसने अपने गुरु के प्रति कोई प्रतिज्ञा या प्रतिबद्धता नहीं ली है। ऐसा भी हो सकता है कि शिष्य इस बात का प्रयत्न कर रहा हो कि गुरु स्वयं उसे एक सेवक या सह-सेवक (चेले) के रूप में स्वीकार कर लें [1]
(2) शिष्य (चेला): ऐसा व्यक्ति जो गुरु के साथ एक बंधन में बंधने की इच्छा रखता है, जो गुरु के प्रकाशित लेखों के बजाय सीधे गुरु द्वारा सीखना चाहता है। शिष्य अपनी कार्मिक उलझनों और सांसारिक इच्छाओं के जाल से निकलकर गुरु का अनुसरण करता है।[2] शिष्य गुरु की सेवा के दौरान ब्रह्मांडीय आत्मा की दीक्षा प्राप्त करता है।अब शिष्य का दिल, दिमाग और आत्मा विद्यार्थी के रूप प्राप्त की गई शिक्षाओं के प्रति कृतज्ञता महसूस करता है और उसके दिल में सबके प्रति निस्वार्थ प्रेम जन्म लेता है। यह प्रेम उसे बलिदान देने, निःस्वार्थ सेवा करने और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर के ईश्वर को स्वयं को समर्पण करने को प्रेरित करता है। जब उसकी निस्वार्थं सेवा का स्तर इतना अधिक हो जाता है कि ईश्वर के अनुसार "संतोषजनक" होता है और शिष्य अपनी त्रिदेव ज्योत और, कर्म को संतुलित करने में लग जाता है, तो वह अगले पायदान पर चढ़ने के लिए तैयार हो जाता है।
(3) मित्र: जो लोग गुरु के मित्र के रूप में जाने जाते हैं वे निमंत्रण द्वारा प्रवेश करते हैं - "अब से मैं तुम्हें सेवक नहीं बल्कि मित्र कहूंगा"[3]-अब से तुम एक साथी और सहकर्मी के रूप में मेरे साथ सभी जिम्मेदारियों को वहन करोगे। मित्र गुरु के प्रकाश का भागीदार होने के साथ साथ गुरु का सारा बोझ भी उठाता है। वह अब्राहम और अन्य चेलों के समान ही मित्रता के गुणों को प्रदर्शित करता है, और पूर्ण वफादारी से गुरु तथा उसके उद्देश्य को सुविधा, सांत्वना, सलाह और समर्थन प्रदान करता है।
(4) Brother: The degree of brother is the level where the oneness of the Guru-chela, Alpha-Omega relationship is complete through the horizontal figure-eight exchange heart-to-heart; the Guru has actually made his disciple a part of his own flesh and blood and offered to him the full momentum of his attainment and portions of his mantle and authority in preparation for the master’s ascension and the disciple’s assuming of the part or whole of the master’s office. This is the love relationship exemplified between Jesus and John, his Mother, Mary, and perhaps his own flesh-and-blood brother (or cousin) James.
(5) Christ, or Christed one: the Anointed of the Incarnate Word.
The path of discipleship
To be the available instrument is one of the great keys in the path of discipleship. The disciple is the disciplined one who is always ready.
Kuthumi says:
A disciple is one who practices the disciplines of the God Self, ruling over and disciplining the outer personality and his own ideational pattern, having the God awareness of himself as an individualized manifestation of the I AM THAT I AM. Those so fortunate as to have chosen discipleship as a way of life, have thereby chosen to serve the Light. By always placing the Light first, these will find that one day the Light will place them first—at the center of God’s will. Then nothing will be impossible to the disciple, for it is not difficult for the Master.[4]
For more information
Jesus and Kuthumi, Corona Class Lessons: For Those Who Would Teach Men the Way, chaps. 25–30.
Sources
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Saint Germain On Alchemy: Formulas for Self-Transformation
- ↑ II Tim। २:१५.
- ↑ मैट ४:१९; मार्क्स १:१७
- ↑ जॉन १५.
- ↑ Jesus and Kuthumi, Corona Class Lessons: For Those Who Would Teach Men the Way, chapter 30.