चार निचले शरीर

From TSL Encyclopedia
Revision as of 10:07, 1 March 2024 by RajKumari (talk | contribs) (Created page with "जिस प्रकार समुद्र की लहरें चंद्रमा से प्रभावित होती हैं (जो हमें ज्वार-भाता के रूप में दिखता है), उसी प्रकार मनुष्य के अंदर का जल तत्त्व भी चंद्रमा से प्रभावित होता है, जिसका प्रमाण है...")
Other languages:

चार निचले शरीर चार अलग-अलग आवृत्तियों से युक्त चार आवरण हैं जो जीवात्मा - शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और आकाशीय - को घेरते हैं - जो जीवात्मा को समय और स्थान की यात्रा करने में सहायता करते हैं। ये वो वाहन हैं जो ईश्वर ने मानव को उसके शरीर में स्थित ईश्वरीय लौ के वैयक्तिकरण और जीवात्मा की भौतिक रूप में अभिव्यक्ति के लिए प्रदान किए हैं। अंतरभेदी बलक्षेत्रों के रूप में ये शरीर जीवात्मा को आत्मा की ऊर्जा ग्रहण करने में मदद करते हैं।

चार निचले शरीरों की पारस्परिक क्रिया

यद्यपि चार शरीरों के अनुरूप चार स्तरों में से प्रत्येक में एक अद्वितीय परमाणु आवृत्ति होती है जो उस शरीर की अनूठी क्षमता की अभिव्यक्ति करती है, चार निचले शरीर एक दूसरे से आकाशीय चक्रों के माध्यम से जुड़े होते हैं तथा एक दुसरे में आ जा सकते हैं। ये चक्र भौतिक शरीर के साथ केंद्रीय तंत्रिका तंत्र () व् अंत: स्रावी तंत्र () के माध्यम से जुड़े होते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण शरीर एक इकाई के रूप में कार्य करता है - विचार, भावनाएं और स्मृतियाँ भौतिक शरीर से गुजरते हुए मानसिक, भावनात्मक और आकाशीय स्तर पर एक साथ स्पंदन पैदा करतीं हैं।

हम इन चार शरीरों को एक-के-बीच-में-एक रखे हुए चार ड्रमों के रूप में मान सकते हैं। आकाशीय शरीर सबसे बड़ा होता है; उसके भीतर मानसिक शरीर, फिर भावनात्मक शरीर और अंत में भौतिक शरीर स्थित होता है। आत्मा की चेतना का प्रकाश मनुष्य के प्रत्येक शरीर पर छिद्रित बिंदु के एक नक़्शे के माध्यम से बहता है। बिंदु का यह नक्शा प्रत्येक शरीर में अलग होता है। (दैवीय रूपरेखा के अनुसार विभिन्न व्यक्तियों में भी बिंदु का यह नक्शा विभिन्न होता है) बिंदु के नक़्शे के भीतर कुछ आधारभूत स्वरुप इन चार "ड्रमों" की ऊर्जाओं को एक दुसरे से मिलाते हैं, जिससे प्रत्येक व्यक्ति को अपने चारों शरीरों के कार्यों और अपने व्यक्तित्व को एकीकृत करने में सहायता होती है। जब प्रत्येक शरीर के सभी छिद्र दुसरे शरीरों के छिद्रों के साथ सीध में होते हैं तब ही प्रकाश शानदार ढंग और दृढ़ता से प्रवाहित हो सकता है। जब ये छेद एक दुसरे के सीध में नहीं होते तो प्रकाश का अनवरत बहना मुश्किल हो जाता है, प्रकाश केवल रिस ही पाता है, फलस्वरूप व्यक्ति सुस्त और अक्षम हो जाता है।

आकाशीय शरीर

आकाशीय शरीर को स्मृति शरीर भी कहते हैं। यह मन मंदिर के उत्तरी भाग की ओर तथा पिरामिड के आधार से मेल खाता है। यह अग्नि पिण्ड है और इसमें अन्य तीन शरीरों के अपेक्षा सबसे अधिक स्पंदन होता है। केवल यही एक ऐसा शरीर है जो स्थायी है, और पृथ्वी पर प्रत्येक जन्म में जीवात्मा के साथ रहता है। अन्य तीनो शरीर - मानसिक, भावनात्मक और भौतिक - विघटन की प्रक्रिया से गुजरते हैं। इसके बावजूद मनुष्य द्वारा एक जन्म में अर्जित किये गए गुण और सुकृति जो मनुष्य इन शरीरों के माध्यम से अर्जित करता है, वह कारण शरीर में संग्रहीत जो जाती है ताकि कोई भी अमूल्य वस्तु कभी गुम न हो।

आकाशीय शरीर के भीतर दो बल क्षेत्र होते हैं। इन्हें उच्च आकाशीय शरीर और निम्न आकाशीय शरीर कहते है। उच्च आकाशीय शरीर को ईश्वरीय स्वरूप की पूर्णता को रिकॉर्ड करने और मनुष्य में उसके चैतन्य व्यक्तित्व की दिव्य सरंचना को स्थापित करने के लिए बनाया गया है। यह आत्मा और ईश्वर की शुद्ध ऊर्जाओं को आश्रय देता है जो उच्चरित शब्द की शक्ति के माध्यम से मनुष्य में प्रवाहित होती हैं। निचला आकाशीय शरीर अवचेतन मन है, ये वह कंप्यूटर है जो मनुष्य के जीवन के आंकड़ों का संग्रह करता है - उसके सभी अनुभव, विचार, भावनाएँ, शब्द और कार्य, जो मानसिक, भावनात्मक और भौतिक शरीर के माध्यम से व्यक्त होते हैं।

मानसिक, भावनात्मक और भौतिक शरीर दुनिया में चैतन्य-क्रिया --- विचार, शब्द और कर्म --- की त्रिमूर्ति के लिए पात्र बनाते हैं। मानसिक शरीर में ईश्वर अपनी बुद्धि डालता है; भावनात्मक शरीर ईश्वर के प्रेम को धारण करता है; और भौतिक शरीर के द्वारा मनुष्य दूसरों की सेवा करता है। जब कोई मनुष्य इन तीनों शरीरों को सामान रूप से सम्मान देता है और इन्हें आत्मा के साथ सही प्रकार से सलंग्न रखता है तो उसे ईश्वर और ब्रह्मांड के नियमों के बारे में ज्ञान मिलता है और वह इन्हीं के हिसाब से अपने मानवीय कार्य करता है। जब मनुष्य अपने इन शरीरों को पवित्र आत्मा का मंदिर समझता है और सचेत रूप से अपनी पवित्र अवस्था में लौटता है, तो उसकी जीवात्मा की इंद्रियाँ मानसिक, भावनात्मक और भौतिक शरीरों के माध्यम से कार्य करती हैं।

मानसिक शरीर

मन मंदिर के पूर्व में स्थित मानसिक शरीर ईश्वर के मस्तिष्क का पात्र है जिसे आत्मा ने बनाया है। यह मनुष्य और ब्रह्मांड के केंद्र के मध्य पूर्ण सामंजस्य बनाता है। मानसिक शरीर के ज्यामितीय सांचे के माध्यम से मनुष्य प्रकृति की शक्तियों को नियंत्रित करने, अपने ब्रह्मांड को नियंत्रित करने और महान रसायनशास्त्री बनने में सक्षम हो सकता है।

जब मनुष्य का मानसिक (वायु) शरीर व्यर्थ के सांसारिक ज्ञान से भर जाता है तो यह ईश्वर के शब्दों को ग्रहण करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसी में सर्पीले तर्क उसके दिमाग को मोहित करते हैं, और और उसकी चेतना का स्तर गिर जाता है। इसके बाद दैहिक बुद्धि आत्मा का स्थान ले लेती है और मानसिक शरीर पर पूर्णतया अधिकार करके कृत्रिम चेतना का निर्माण कर उसमें शासन करती है।

भावनात्मक शरीर

मन मंदिर के दक्षिण में स्थित भावनात्मक शरीर भगवान और आत्मा की भावनाओं का प्रतिबिम्ब है - दया, करुणा, विश्वास, आशा, उत्साहपूर्ण प्रेम, हर्षित दृढ़ संकल्प, उग्र उत्साह, और ब्रह्मांडीय कानून, ब्रह्मांडीय विज्ञान और दिव्य कलाओं की सराहना करने की भावनाओं का प्रतिबिम्ब। यह मनुष्य की अपनी भावनाओं, उसकी इच्छाओं और उसकी भावनाओं का भंडार भी है, जो कई बार शांतिपूर्ण होने की अपेक्षा अशांत होती हैं। जब मनुष्य जल तत्व पर प्रवीणता हासिल कर लेता है तो भावनात्मक शरीर वास्तविक छवि का दर्पण बन जाता है और इसकी ऊर्जाओं को आत्मा की भावनाओं और वास्तविकता के साथ उसके सहज संपर्क को प्रतिबिंबित करने के लिए निर्देशित कर सकता है। परन्तु जब भावनात्मक शरीर दुनिया की भयावह और सम्मोहक भावनाओं जैसे मानवीय करुणा और क्रोध में प्रशिक्षित किया जाता है तो वह मानव की कृत्रिम छवि ग्रहण कर लेता है।

जिस प्रकार समुद्र की लहरें चंद्रमा से प्रभावित होती हैं (जो हमें ज्वार-भाता के रूप में दिखता है), उसी प्रकार मनुष्य के अंदर का जल तत्त्व भी चंद्रमा से प्रभावित होता है, जिसका प्रमाण है पूर्णिमा के दौरान लोगों द्वारा अनुभव की जाने वाली उत्तेजक भावनाएं। भावनात्मक शरीर इंसान की चेतना के अधीन होता है। जब मनुष्य अपने भावनात्मक शरीर को ईश्वर के नियंत्रण में कर लेता है, तो विश्व में अच्छाई, सत्य, शांति और प्रेम की शक्ति का विस्तार करने के लिए ब्रह्मांड की सर्वोपरि शक्तियां उसके अधीन होती हैं।


भौतिक शरीर

The physical body, corresponding to the side of the west, provides the opportunity for man to express the summum bonum of his consciousness in Matter. As the higher etheric body contains the blueprint of individuality in higher planes, so on earth man sculpts the pattern of his identity upon the substance of his physical body. Formed “of the dust of the ground,” which no longer sparkles with the radiance of the white fire core, this tabernacle of the soul, this temple of the living God, is not transparent as it used to be, emitting the radiance of the Universal Christ. Instead of being the focal point for the crystallization of the divine plan, man’s physical (earth) body has become the sepulcher of the imperfect thoughts and feelings recorded upon his lower etheric body.

Karma and the four lower bodies

Man’s karma determines the capacities and limitations of his four lower bodies. Thus, in order to outpicture perfection in his physical form, man must take the leaven of the Christ consciousness—“which a woman [the Divine Mother] took and hid in three measures of meal”—and carefully place it in the etheric, mental, and emotional bodies in order that the leaven might leaven “the whole lump.”[1]

See also

Sources

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Path of the Higher Self, volume 1 of the Climb the Highest Mountain® series, chapter 4, 6.

  1. Matt. 13:33; Luke 13:21.