शरीर का मौलिक तत्त्व
प्रकृति का तत्व (साधारणतया ये भौतिक स्तर अदृश्य हालत में रहते हुए कार्य करते हैं, इसलिए अक्सर इन पर ध्यान नहीं जाता) जो जीवात्मा की उसके पदार्थ रूप में पर प्रथम बार जन्म लेने के समय से भौतिक शरीर की सेवा में लगा रहता है।
इसकी ऊंचाई लगभग तीन फुट की होती है तथा रूप उस व्यक्ति से मिलता-जुलता है जिसकी यह सेवा करता है। यह व्यक्ति के अभिभावक देवदूत के साथ आत्मा के तहत, मनुष्य का अदृश्य मित्र एवं सहायक है।
मनुष्य का यह निष्ठावान सहायक अनेकानेक अवतारों में उसका स्थायी सहयोगी रहता है।
शिशु के जन्म में शारीरिक तत्व की भूमिका
आत्मा एवं मनुष्य में उपस्थित ईश्वर के अंश के निर्देशन पर कार्य करता हुआ, शरीर का मौलिक तत्व इलेक्ट्रॉनिक पैटर्न और जीवनधारा की सूक्ष्म रूपरेखा को भौतिक रूप में अभिव्यक्ति करता है।कर्म के स्वामी द्वारा पुनर्जन्म की घोषणा के समय से लेकर गर्भधारण तक, आनेवाली जीवात्मा के शरीर का मौलिक तत्व, पिता एवं माता के मौलिक शारीरिक तत्वों के साथ मिलकर त्रिमूर्ति का निर्माण करता है। ईश्वर की आज्ञानुसार किया गया यह कार्य माता के गर्भ में पल रहे जीव के प्रत्येक अणु में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की ऊर्जा का संचार करता है। अगर पिताजी पास नहीं होते तो उनकी आत्मा बच्चे के विकास में सहायता के लिए प्रकाश किरणों को मां की ओर भेजती है।</ref>
शिशु के जन्म (जिस क्षण शिशु की गर्भनाल काटी जाती है तथा महाचौहान उसकी त्रिदेव ज्योत को जलाते है) से लेकर उसकी मृत्यु तक (जिस क्षण त्रिदेव ज्योत बुझ जाती जाती है), मौलिक शारीरक तत्व भौतिक स्तर पर हर पल जीवात्मा के सेवा में लीन रहता है। इस पूरे समय के दौरान देवदूत जीव की मानसिक और भावनात्मक ज़रूरतों को पूरा करते है।
शरीर के मौलिक तत्व का कार्य
शरीर का मौलिक तत्व सदा व्यक्ति की मनोदशा और स्वभाव का अनुकरण करता है। मनुष्य जो कहेगा उसका मौलिक तत्त्व उसी की नक़ल करेगा - मैं स्वस्थ हूँ, मैं बीमार हूँ , मैं अच्छा महसूस कर रहा हूँ या फिर मैं बुरा महसूस कर रहा हूँ - यूँ समझिये की मौलिक शारीरिक तत्व एक जिन्न है जो व्यक्ति की आज्ञा का पालन करता है, वह मनुष्य के कर्म के अलावा कुछ नहीं कर सकता।
बच्चों को अक्सर शरीर का मौलिक तत्त्व दिखाई देता है और वे उस से खेलते-बतियाते हैं, परन्तु व्यस्क लोग अक्सर इस बात को समझ नहीं पाते और इसे बच्चे की कल्पना की उपज मानते हैं। शरीर का मौलिक तत्व व्यक्ति की चेतना के अनुसार वस्त्र पहनता है; यह अदृश्य सहायक वही वेश लेता है जो या तो व्यक्ति के वर्तमान जीवन का मुख्य गुण है या फिर पिछले जन्मों का कोई प्रमुख गुण।
चाहे मनुष्य शरीर के मौलिक तत्व की उपस्थिति को जाने या न जाने; माने या न माने, मौलिक तत्व सदैव मनुष्य की सेवा में लगा रहता है, वह मनुष्य की इच्छानुसार कार्य करता रहता है। मनुष्य के विचार और भावनाएं तरंगों के रूप में उसके मौलिक तत्व तक पहुंचती रहती हैं, तथा मौलिक तत्व उन सभी भावनाओं और विचारों को मनुष्य के भौतिक शरीर के प्रत्येक अणु प्रदर्शित करता रहता है। मनुष्य अपने नकारात्मक विचारों से अपने मौलिक तत्व को नकारात्मक बना देता और यही नकारात्मकता शरीर में बीमारी के रूप में प्रकट होती है। अतः हम ये कह सकते हैं कि मनुष्य के प्रत्यक्ष रूप में बीमार होने से पहले उसके शरीर का मौलिक तत्व बीमार होता है। जहाँ भय और संशय शरीर के मौलिक तत्व को पूरी तरह से पंगु बना देते हैं वहीँ जीवन के प्रति सकारात्मक विचार उसे मुक्त कर मनुष्य को अच्छा स्वास्थय प्रदान करते हैं।
जिस प्रकार हवा के मौलिक तत्व सिल्फ्स (slyphs), अग्नि के मौलिक तत्व सैलामैंडर (Salamanders), पृथ्वी के मौलिक तत्व नोम्स (Gnomes) और जल के मौलिक तत्व अनडाइंस (Undines) इस ग्रह के प्रदूषण से संक्रमित हो जाते हैं उसी प्रकार मानवता की सामूहिक चेतना से इंसान के शरीर के मौलिक तत्व कमज़ोर हो जाते हैं। अगर कोई व्यक्ति नकारात्मकता में जीता है तो उसके शरीर का मौलिक तत्व इस नकारात्मकता से प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता। अतः अस्वस्थ शरीर व्यक्ति के दूषित आभामंडल तथा ईश्वर से उसकी दूरी की ओर इशारा करता है। अपनी आत्मिक चेतना से हमें सभी प्रकार की नकारात्मकता को स्वयं से दूर करना पड़ता है ताकि शरीर के मौलिक तत्व स्वतंत्रता से अपना काम कर पाएं। रोकथाम ही सबसे अच्छा और सबसे सुरक्षित इलाज है इसलिए मनुष्य को चाहिए की वह प्रतिदिन अपनी आत्मिक चेतना का आह्वाहन करे ताकि उसके शरीर का मौलिक तत्व बाह्य अतिक्रमण से सुरक्षित रहे।
इंसान को स्वस्थ रखने के लिये मौलिक तत्व उसके ह्रदय में स्थित त्रिदेव ज्योत और शरीर के सातों चक्रों से प्रवहित होते हुए प्रकाश का इस्तेमाल करता है। ये चक्र ह्रदय की ऊर्जा को चारों निचले शरीरों में वितरित करते हैं, परन्तु अगर ये चक्र सूक्ष्म स्तर के प्रदुषण से प्रभावित होते हैं तो मौलिक तत्व भौतिक स्तर पर अपना काम करने में बाधित होता है। इंसान जितना अधिक प्रकाश अपने शारीरिक प्रभावक्षेत्र में संचारित करता है, मौलिक तत्व उतना ही प्रकाश उसकी सेवा में अर्पित करता है।
आप अपने शरीर के मौलिक तत्त्व के अधिकारी हैं। अगर आप उसे सकारात्मक विचार देंगे, आप बेहद प्रसन्न, स्वस्थ और पवित्र रहेंगे। साथ ही यह भी ज़रूरी है की आप नियमित व्यायाम तथा सात्विक भोजन करें और आध्यात्मिक उन्नति के लिए ज्ञान अर्जन करें क्योंकि ऐसा न करने पर शरीर का मौलिक तत्व चाह कर भी अच्छा कार्य नहीं कर सकता।
शरीर का मौलिक तत्व अनश्वर है
अन्य मौलिक तत्वों की अपेक्षा शरीर का मौलिक तत्त्व अनश्वर है। हालांकि इसका निर्माण भौतिक शरीर के साथ होता है, परन्तु पदार्थ के स्तर पर अनुभव प्राप्त करते हुए यह विकसित हो रही आत्मिक चेतना का हिस्सा बन जाता है। विभिन्न जन्मों के अंतराल में , यह अपने सूक्ष्म तत्व में सम्मिलित हो जाता है और जीवात्मा के साथ अगले जन्म की तैयारी करता है। आत्मिक चेतना इसे अगले जन्म में सेवा के लिए प्रज्वलित करती है। कभी कभी मौलिक तत्व अपनी वृत्ति (polarity) बदल लेता - ऐसा तब होता है जब जीवात्मा यह विचार कर रही होती है कि वह स्त्री शरीर धारण करे या पुरुष।
जब जीवात्मा का आध्यात्मिक उत्थान हो जाता है तब शरीर का मौलिक तत्व अमरत्व प्राप्त कर लेता है। जीवात्मा को जब भौतिक शरीर की आवश्यकता नहीं रहती, तब उसे मौलिक तत्व के सेवा की भी ज़रुरत नहीं होती। इस तरह शरीर का मौलिक तत्व भी पुनर्जन्म के चक्कर से बच जाता है। चूँकि यह सेवा के माध्यम से मिला होता है, दिव्यगुरु इसे अपने साथ सहायता के लिए रख सकते हैं। जो समरूप जोड़ियां आध्यात्मिक रूप से उन्नत हो जाती हैं, अपने मौलिक तत्व के साथ वे एक आध्यात्मिक चौकड़ी बनाती हैं। डेमन और पिथियस के अलावा, ऐसा अमर बंधन सिर्फ दिव्यगुरु और उसके मौलिक तत्व में ही देखा गया है।
शरीर का त्याग करना
बड़े से बड़े योगियों के जीवन में भी भीषण कष्ट के क्षण आते हैं, तथा वे भी समाधी लेते वक्त शरीर का त्याग करने में अथाह दुःख महसूस करते हैं - इस समय जीवात्मा कभी वापिस न आने के लिए ऊपर निकल जाती है। इसे ही महासमाधि कहा जाता है। गंभीर मनोवैज्ञानिक अलगाव से पीड़ित लोगों के अलावा लगभग हर इंसान अपने शरीर के प्रति भावनात्मक लगाव रखता है। और क्यों ना हो? आखिर यह शरीर ही तो है जो हमने पहना हुआ है और जिसकी सहायता से हम अच्छे कार्य कर सकते हैं, दुःख और सुख का अनुभव कर सकते हैं, और अपने कर्मों को संतुलित कर सकते हैं। यह शरीर हो तो वह मंदिर है जहाँ जीवात्मा रहती है।
So we say, “Blest be the tie that binds us to earth when we need to be earthbound to fulfill our reason for being and blest be the liberating power of Shiva! when it’s time ‘to shuffle off this mortal coil.’” Emotions connected with our attachment to the body are natural, and you should be aware that your body elemental has a consciousness and its consciousness permeates the physical body.
Don’t mistake your body elemental’s fears for your own. Your body elemental is also attached to the body, because that’s his job. He takes care of the body. No more body, no more job! So he’s wondering where he’s going and what he’s going to do when you lay that body aside in your final embodiment. You have to comfort your body elemental as you would a little child and promise him that you are taking him with you to the next octave because he has been a very faithful servant. Tell him he can still be your aide-de-camp after you’ve ascended and he’ll have plenty of assignments.
इसे भी देखिये
अधिक जानकारी के लिए
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Path of the Higher Self, volume 1 of the Climb the Highest Mountain® series, pp. 380–87.
स्रोत
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Saint Germain On Alchemy: Formulas for Self-Transformation.
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Path of the Higher Self, volume 1 of the Climb the Highest Mountain® series, chapter 7.
Pearls of Wisdom, vol. 35, no. 30, २६ जुलाई १९९२.